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विमोक्ष
१२२. वह लाघव का चिन्तन करता हुआ [सेवा का प्रकल्प करे ] ।
१२३. सेवा का प्रकल्प करने वाले मुनि के [ अवमौदर्य तथा वैयावृत्य ] तप होता है ।
१२४. भगवान् ने जैसे सेवा के प्रकल्पों का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से, सर्वात्मना [सम्पूर्ण रूप से ] समत्व का सेवन करे - किसी की अवज्ञा न करे ।
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प्रायोपगमन अनशन
१२५. जिस भिक्षु को ऐसा संकल्प होता है - 'मैं इस समय [समयोचित क्रिया करने के लिए ] इस शरीर को वहन करने में ग्लान (असमर्थ ) हो रहा हूं ।' वह भिक्षु क्रमश: आहार का संवर्तन (संक्षेप) करे । आहार का संक्षेप कर कषायों ( क्रोध, मान, माया और लोभ ) को कृश करे । कषायों को कृश कर समाधिपूर्ण भाव वाला, फलक की भांति शरीर और कषायदोनों ओर से कृश बना हुआ भिक्षु समाधि-मरण के लिए उत्थित होकर शरीर को स्थिर - शान्त करे ।
१२६. [ वह संलेखना करने वाला भिक्षु शारीरिक शक्ति होने पर ] गांव, नगर, खेड़ा, कर्वट, मडंब, पत्तन, द्रोणमुख, आकर, आश्रम, सन्निवेश, निगम या राजधानी में प्रवेश कर घास की याचना करे । उसे प्राप्त कर गांव आदि के बाहर एकान्त में चला जाए। वहां जाकर जहां कीट- अण्ड, जीव-जन्तु, बीज, हरित, ओस, उदक, चींटियों के बिल, फफूंदी, दलदल या मकड़ी के जाले न हों वैसे स्थान को देखकर, उसका प्रमार्जन कर, घास का बिछौना करे । बिछौना कर उस समय 'प्रायोपगमन' अनशन कर शरीर, उसकी प्रवृत्ति ( उन्मेष - निमेष आदि) और गमनागमन का प्रत्याख्यान
करे ।
* देखें, उत्तरयणाणि भाग २, अ० ३०, श्लोक १२, १३ टिप्पण, पू० २५५-२६२ ।
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