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________________ वमोक्ष २७९ अग्नि-काय के सेवन का प्रतिषेध ४१. शीत स्पर्श से प्रकम्पमान शरीर वाले भिक्षु के पास आकर गृहपति कहे 'आयुष्मान् श्रमण ! क्या तुम्हें ग्राम्य-धर्म (इन्द्रिय-वासना) बाधित नहीं कर रहे हैं ?' 'आयुष्मान् गृहपति ! मुझे ग्राम्य-धर्म बाधित नहीं कर रहे हैं। मैं शीत-स्पर्श को सहन करने में समर्थ नहीं हूं; [ इसलिए मेरा शरीर प्रकम्पित हो रहा है । ['तुम अग्नि क्यों नहीं जला लेते' ?] 'मैं अग्नि-काय को उज्ज्वलित और प्रज्वलित नहीं कर सकता और दूसरों के कहने से स्वतः प्रज्वलित अग्नि के द्वारा अपने शरीर को आतापित और प्रतापित नहीं कर सकता।' ४२. भिक्ष के द्वारा ऐसा कहने पर भी कदाचित् वह गृहपति अग्नि-काय को उज्ज्वलित और प्रज्वलित कर उसके शरीर को आतापित और प्रतापित करे, तो भिक्षु आगम की आज्ञा को ध्यान में रखकर, उस गृहपति से कहे-'मैं अग्निकाय का सेवन नहीं कर सकता।' -ऐसा मैं कहता हूं। चतुर्थ उद्देशक उपकरण-विमोक्ष ४३. जो भिक्षु तीन वस्त्र और एक पान रखने की मर्यादा में स्थित है, उसका मन ऐसा नहीं होता कि मैं चौथे वस्त्र की याचना करूंगा।११ ४४. वह यथा-एषणीय (अपनी-अपनी कल्प-मर्यादा के अनुसार ग्रहणीय)+ वस्त्रों की याचना करे। ४५. वह यथा-परिगृहीत वस्त्रों को धारण करे-न छोटा-बड़ा करे और न संवारे। + बस्त्र की चार एषणाएं हैं । (देखें, आयार-चूला, ५२१६-२१) । Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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