SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 298
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विमोक्ष २७१ २०. मेधावी उस कर्म-समारम्भ का विवेक कर दण्ड-भीरु (हिंसा-भीरु) होने के ___ कारण पूर्वकथित या अन्य किसी प्रकार के दण्ड का प्रयोग न करे। -ऐसा मैं कहता हूं। द्वितीय उद्देशक अनाचरणीय का विमोक्ष २१. भिक्षु कहीं जा रहा है। श्मशान, शून्यगृह, गिरि-गुफा, वृक्ष के नीचे या कुम्हार के आयतन में खड़ा, बैठा या लेटा हुआ है अथवा [गांव से] बाहर कहीं भी विहार कर रहा है। उस समय कोई गृहपति उसके पास आकर बोले'आयुष्मान् श्रमण ! मैं प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों का समारम्भ कर तुम्हारे लिए अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पान, कम्बल या पादपोंछन बनाता हूं या तुम्हारे उद्देश्य से उसे खरीदता हूं, उधार लेता हूं, दूसरों से छीनता हूं; वह मेरे भागीदार द्वारा अनुज्ञात नहीं है या उसे यहां लाता हूं। इस प्रकार का अशन आदि मैं तुम्हें देना चाहता हूं। तुम्हारे लिए उपाश्रय का निर्माण करता हूं। हे आयुष्मान् श्रमण ! उस (अशन, या पान आदि) का उपभोग करो और (उस उपाश्रय में) रहो।' २२. भिक्षु भद्र मन और वचन वाले उस गृहपति को प्रतिषेध की भाषा में कहे 'आयुष्मान् गृहपति ! मैं तुम्हारे वचन को आदर नहीं देता हं, स्वीकार नहीं करता हूं, जो तुम प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों का समारम्भ कर मेरे लिए अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पान, कम्बल या पादपोंछन बनाते हो या मेरे ही उद्देश्य से उसे खरीदते हो, उधार लेते हो, दूसरों से छीनते हो, तुम्हारे भागीदार की अनुज्ञा प्राप्त नहीं करते हो या अपने घर से यहां लाकर देना चाहते हो। मेरे लिए उपाश्रय का निर्माण करते हो। आयुष्मान् गहपति ! मैं उस (इस प्रकार के आहार या पान आदि) से विरत हुआ हूं। मेरे लिए यह अकरणीय है। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy