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आयारो
सूत्र-६७ १८. श्रुतज्ञान के अभ्यास के समय मुनि उपवास, अल्पाहार या रूक्षाहार करता है । उससे उसका शरीर कृश हो जाता है । भुजा की कृशता शरीर की कृशता की सूचक है । अल्पाहार या रूक्षाहार से रस कम बनता है और रस के अल्प होने पर रक्त, मांस आदि धातुएं भी अल्प बनती हैं। फलत: शरीर लघु हो जाता है। स्वाध्याय में निरन्तर संलग्न रहने से भी शरीर लघु रहता है । बाह्य और आभ्यन्तर ये दोनों तप शरीर-लाघंव के हेतु हैं। __ चूर्णिकार ने उपकरण-लाघव की भांति शरीर-लाघव के सभी सूत्रों की ओर इंगित किया है। उसके अनुसार तीनों सूत्रों (६३, ६४, ६५) का अनुवाद इस प्रकार है६३. ज्ञान का ग्रहण और तप करने वाले मुनि के शरीर-लाघव होता है । ६४. शरीर को कृश करने वाले मुनि के तप होता है। ६५. भगवान् ने जैसे शरीर-लाघव का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में
जानकर , सब प्रकार से, सर्वात्मना समत्व को समझकर किसी की अवज्ञा न करे।
चार मास का उपवास करने वाला मुनि मासिक उपवास करने वाले मुनि की अवज्ञा न करे। इसी प्रकार एकान्तर उपवास करने वाला मुनि प्रतिदिन आहार करने वाले मुनि की अवज्ञा न करे। इसी प्रकार विशिष्ट स्वाध्याय करने वाला अल्प स्वाध्याय करने वाले की अवज्ञा न करे। समत्व का अनुशीलन करने वाला मुनि किसी की भी अवज्ञा नहीं करता।
सूत्र-७० १९. मनुष्य की इन्द्रियां दुर्बल, चपल और उच्छृखल होती हैं तथा मोह की शक्ति अचित्य और कर्म की परिणति विचित्र होती है। इसलिए वे ज्ञानी मनुष्य को भी पथ से उत्पथ की ओर ले जाती हैं।
सूत्र-७१ २०. साधक विषयों का त्याग कर संयम में रमण करता है। साधना-काल में प्रमाद, कषाय आदि समय-समय पर उभरते हैं और उसे विषयाभिमुख बना देते हैं। किन्तु जागरूक साधक धर्म की धारा को मूल स्रोत (आत्म-दर्शन) से जोड़कर आत्मानुभव करता रहता है।
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