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टिप्पण
सूत्र-१ १. कोई भी तत्त्व-प्रतिपादन अपौरुषेय नहीं होता है। इस विश्व में जो भी तत्त्व प्रतिपादित है, वह मनुष्य के द्वारा ही प्रतिपादित है।
सूत्र-६ २. प्रस्तुत सूत्र के रूपक का पूर्ण आशय इस प्रकार है-एक बहुत बड़ा ह्रद था। वह सघन सेवाल और कमल-पत्रों से ढंका रहता था। उसमें नाना प्रकार के जलचर जीव थे। एक दिन स्वभावतः उस सघन सेवाल में विवर हो गया। अपने परिवार से बिछुड़ा हुआ एक कछुआ संयोगवश वहां आ पहुंचा। उसने गर्दन बाहर निकाल कर नक्षत्रों और ताराओं से आकीर्ण नील गगन को देखा। उसका मन प्रमोद से भर गया। उसने सोचा-मैं अपने सारे परिवार को यहां लाऊं और उन्हें यह अनुपम दृश्य दिखलाऊं। वह परिवार की खोज में नीचे गया। परिवार को उस अनुपम दृश्य देखने की बात बताई और उसके साथ विवर की खोज में चल पड़ा। वह ह्रद इतना विशाल था कि उसे वह विवर फिर कभी प्राप्त नहीं हुआ।
यह संसार एक ह्रद है । यह मनुष्य एक कछुआ है । कर्म सेवाल है । सम्यक्त्व विवर है। संयम के आकाश को देखकर वह फिर घर में जाता है और वहां आसक्त हो जाता है। फिर उसे संयम का जीवन प्राप्त नहीं होता। यह अनात्मप्रज्ञ के अवसाद का एक उदाहरण है।
सूत्र-९ ३. अन्धकार दो प्रकार का होता है: १. द्रव्य अन्धकार--यह प्रकाश के अभाव में होता है। २. भाव अन्धकार---मिथ्यात्व और अज्ञान।
___ अन्ध भी दो प्रकार के होते हैं : १. द्रव्य अन्ध-चक्षु-रहित। २. भाव अन्धविवेक-रहित।
मिथ्यात्व और अज्ञान में रहने वाले मनुष्य विवेकशून्य होते हैं। वे कर्म के उपादान और परिपाक को नहीं देख पाते।
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