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धुत
शरीर - लाघव धुत
६६. जीवन के पूर्व भाग में दीक्षित होकर जीवन पर्यन्त संयम में चलने वाले, चारित्र सम्पन्न और पराक्रमी साधुओं ने इस प्रकार जो सहन किया, उसे तू देख |
६७. प्रज्ञा प्राप्त मुनि की भुजाएं कृश होती हैं और रक्त-मांस अल्प होते हैं ।"
६८. मुनि [समत्व की ] प्रज्ञा से [ राग-द्वेष की ] श्रेणी को छिन्न कर डाले ।
६६. यह ( राग-द्वेष की श्रेणी को छिन्न करने वाला) तीर्ण, मुक्त, विरत कहलाता है । ऐसा मैं कहता हूं ।
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संयम धुत
चिरकाल से प्रव्रजित, संयम में [ उत्तरोत्तर ] गतिशील विरत भिक्षु को क्या अरति अभिभूत कर पायेगी ?"
७०.
७१. [ प्रतिक्षण धर्म का ] संधान करने वाले तथा [ वीतरागता के] अभिभूख मुनि को [ अरति अभिभूत नहीं कर पाती ] ।°
७२. जैसे जल से अप्लावित द्वीप [ पोत यात्रियों के लिए आश्वास-स्थान होता है, ] वैसे ही तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट धर्म [ संसार-समुद्र का पार पाने वाले के लिए आश्वास-स्थान ] होता है । "
७३. मुनि [भोग की ] आकांक्षा तथा [ प्राणी का ] प्राण-वियोजन नहीं करने के कारण लोकप्रिय ( धार्मिक जगत्-सम्मत ), मेधावी और आत्मज्ञ होते हैं।
विनय धुत
७४. जैसे विहग-पोत अपने [ माता-पिता की इच्छा का पालन करता है, ] वैसे ही शिष्य [ आश्वास- द्वीप-तुल्य ] ज्ञानी गुरुजनों की आज्ञा का पालन करे । २१
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