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________________ २३९ ४८. वे मेरे धर्म को जानकर-मेरी आज्ञा को स्वीकार कर [आजीवन मुनि-धर्म का पालन करते हैं] ।१५ ४९. यह उत्तरवाद-उत्कृष्ट सिद्धान्त--मनुष्यों के लिए निरूपित किया गया है।" ५०. विषय से उपरत साधक उत्तरवाद का आसेवन करता है। ५१. वह कर्म-बंध का विवेक कर [संयम-] पर्याय (मुनि-जीवन) के द्वारा उसका विसर्जन कर देता है। ५२. कुछ साधु अकेले रहकर साधना करते हैं-एकाकी विहार की प्रतिमा को स्वीकार करते हैं। ५३. वे नाना प्रकार के कुलों में शुद्ध एषणा और सर्वेषणा के द्वारा [परिव्रजन करते हैं । ५४. वह मेधावी [ग्राम आदि में] परिव्रजन करे। ५५. सुगन्ध या दुर्गन्ध-युक्त [-जैसा भी आहार मिले, उसे समभाव से खाए] । ५६. अथवा एकाकी विहार वाले साधना-काल में भैरव [शब्दों को सुन या भैरव रूपों को देखकर भयभीत न बने] । ५७. हिंस्र प्राणी प्राणों को क्लेश पहुंचाए, [उससे विचलित न हो।] ५८. इन स्पर्टी (परीषहों) के उत्पन्न होने पर धीर मुनि उन्हें सहन करे। -ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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