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१३. प्राणी प्राणियों को कष्ट देते हैं-प्रहार से लेकर प्राण-वियोजन तक करते हैं।'
१४. तू देख-लोक में महान् भय है।"
चिकित्सा-प्रसंग में अहिंसा १५. जीवों के नाना प्रकार के दुःख होते हैं।'
१६. मनुष्य कामनाओं में आसक्त होते हैं।'
१७. [जीवन की आशंसा रखने वाले इस निःसार और क्षणभंगुर शरीर के
लिए जीवों के वध की इच्छा करते हैं।
१८. वेदना से पीडित मनुष्य बहुत दुःख वाला होता है। इसलिए वह अज्ञानी
[प्राणियों को क्लेश देता हुआ] धृष्ट हो जाता है।
१९. इन नाना प्रकार के रोगों को उत्पन्न हुआ जानकर आतुर मनुष्य [चिकित्सा
के लिए दूसरे जीवों को] परिताप देते हैं।
२०. तू देख ! [ये चिकित्सा-विधियां रोग-हनन के लिए पर्याप्त नहीं हैं।
२१. [जीवों को क्लेश पहुंचाने वाली] इन (चिकित्सा-विधियों) का तू परित्याग
कर।
२२. मुने ! तू देख ! यह (हिंसामूलक चिकित्सा) महान् भय उत्पन्न करने गली
+ यहां 'गच्छन्ति' क्रियापद का अर्थ 'इच्छन्ति' है। चूणिकार ने गच्छन्ति के एकार्थक क्रिया
पदों का निर्देश किया है-'कं खंति, पत्थंति, गच्छन्ति एगट्ठा ।' (चूणि, पृ. २०५)।। x चूणि और टीका में 'पकुम्वई' पाठ ही व्याख्यात है। इसके आधार पर प्रस्तुत पाठ का अनुवाद इस प्रकार होगावेदना से पीडित मनुष्य बहुत दुःखवाला होता है। वह अज्ञानी वेदना-शमन के लिए] प्राणियों को कष्ट देता है। किन्तु उत्तराध्ययन सब ५।७ में 'इति वाले पगब्भई' पाठ हे। चूर्णिकार ने यहां भी 'पगभइ' को पाठान्तर स्वीकार किया हे । अर्थ की दृष्टि से भी यह अधिक भावपूर्ण और उपयुक्त लगता है।
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