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________________ लोकसार २१५ हिंसा, असत्य, चौर्य, मैथुन और परिग्रह का सूचक है। सूत्र-५० १७. रूप और हिंसा में आसक्त मनुष्य मानता है कि रूप जीवन का सार तत्त्व है और हिंसा सब समस्याओं का समाधान है। जिसकी भाव-धारा बदल जाती हैरूप और हिंसा के प्रति आसक्ति समाप्त हो जाती है, वह मानता है कि रूप क्षणभंगुर और परिणाम-काल में दुःखद है तथा हिंसा सब समस्याओं का मूल है। विश्व में जितनी समस्याएं हैं, जितने दुःख हैं, वे सब मूलतः हिंसा से उत्पन्न हैं। सूत्र-५४ १८. जिसका मुख लक्ष्य की ओर होता है, वही विदिशाओं का पार पा सकता है। विदिशाओं का पार पाने के संकल्प-सूत्र हैं मैं अज्ञान को छोड़ता हूं, ज्ञान (आत्मानुभव) को स्वीकार करता हूं। मैं मिथ्यात्व को छोड़ता हूं, सम्यक्त्व को स्वीकार करता हूं। मैं अचारित्र को छोड़ता हूं, चारित्र को स्वीकार करता हूं। आसक्ति और रति-ये दोनों लक्ष्य से भटकाने वाले हैं। विदिशाओं का पार पाने वाला इन दोनों के भटकाव से मुक्त होता है। १९. प्रवृत्ति का मुख्य स्त्रोत अन्तःकरण है। वह प्रज्ञा से संचालित होता है। उसके नियामक तत्त्व दो हैं--मोह और निर्मोह। मोह से नियंत्रित प्रज्ञा असत्य होती है-धर्म के विपरीत होती है। निर्मोह से नियंत्रित प्रज्ञा सत्य होती है-धर्म के अनुकूल होती है। जिसकी प्रज्ञा सत्य होती है, वह शरीर, वाणी और भाव से ऋजु तथा कथनी और करनी में समान होता है। इस प्रकार की सत्य प्रज्ञा संचालित अन्तःकरण ही हिंसा और विषय से विरत हो सकता है। कोई भी साधक केवल बाह्याचार से हिंसा और विषय से विरत नहीं हो सकता । पूर्ण सत्यप्रज्ञा-युक्त अन्तःकरण से ही वह उनसे विरक्त हो सकता है। सूत्र-५७ २०. व्यवहार नय की दृष्टि से ज्ञान और आचार में दूरी मानी जाती है। निश्चय नय के अनुसार उनमें कोई दूरी नहीं होती। सम्यग् दर्शन और सम्यक् ज्ञान की परिणति सम्यक् चारित्र है। प्रस्तुत सूत्र का प्रतिपाद्य है-ज्ञान का सार आचार है। आचार-शून्य ज्ञान अन्ततः समीचीन कैसे बना रह सकता है ? सूत्रकार को सम्यक् ज्ञान और सम्यग् आचरण की एकता इष्ट है। उनके अनुसार सम्यक् ज्ञान Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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