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________________ लोकसार २०३ १०६. यह आत्मवादी सत्य' का पारगामी कहलाता है । -ऐसा मैं कहता हूं। षष्ठ उद्देशक पथ-दर्शन १०७. कुछ पुरुष अनाज्ञा में उद्यमी और आज्ञा में अनुद्यमी होते हैं। १०८. [अनाज्ञा में उद्यम और आज्ञा में अनुद्यम-]यह तुम्हारे मन में न हो। १०९. यह महावीर का दर्शन है । ११०. मुनि उस (महावीर के दर्शन) में दृष्टि नियोजित करे; उसमें तन्मय हो; उसे प्रमुख बनाए; उसकी स्मृति में उपयुक्त हो और उसमें दत्तचित हो उसका अनुसरण करे। १११. [सत्य का] साक्षात्कार उसी ने किया है जिसने [साधना के विघ्नों को] अभिभूत किया है। जो [बाधाओं से] अभिभूत नहीं होता, वही निरालम्बी होने में समर्थ होता है।" ११२. जो महान् [मोक्षलक्षी] होता है, वह [यौगिक विभूतियों के प्रयोग को देखकर] मन को असंयम में न ले जाए। ११३. प्रवाद को प्रवाद से जानना चाहिए। ११४. पूर्व जन्म की स्मृति से, तीर्थंकर से प्रश्न का उत्तर पाकर अथवा अन्य किसी अतिशय ज्ञानी से सुनकर [प्रवाद को जाना जा सकता है।] ११५. मेधावी निर्देश का अतिक्रमण न करे। + देखें, ५।२७, पाद-टिप्पण । इस सूत्र का वैकल्पिक अर्थ इस प्रकार किया जा सकता है यह आत्मवादी समता का पारगामी कहलाता है। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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