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लोकसार
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१०६. यह आत्मवादी सत्य' का पारगामी कहलाता है ।
-ऐसा मैं कहता हूं।
षष्ठ उद्देशक
पथ-दर्शन १०७. कुछ पुरुष अनाज्ञा में उद्यमी और आज्ञा में अनुद्यमी होते हैं।
१०८. [अनाज्ञा में उद्यम और आज्ञा में अनुद्यम-]यह तुम्हारे मन में न हो।
१०९. यह महावीर का दर्शन है ।
११०. मुनि उस (महावीर के दर्शन) में दृष्टि नियोजित करे; उसमें तन्मय
हो; उसे प्रमुख बनाए; उसकी स्मृति में उपयुक्त हो और उसमें दत्तचित हो उसका अनुसरण करे।
१११. [सत्य का] साक्षात्कार उसी ने किया है जिसने [साधना के विघ्नों को]
अभिभूत किया है। जो [बाधाओं से] अभिभूत नहीं होता, वही निरालम्बी होने में समर्थ होता है।"
११२. जो महान् [मोक्षलक्षी] होता है, वह [यौगिक विभूतियों के प्रयोग को
देखकर] मन को असंयम में न ले जाए।
११३. प्रवाद को प्रवाद से जानना चाहिए।
११४. पूर्व जन्म की स्मृति से, तीर्थंकर से प्रश्न का उत्तर पाकर अथवा अन्य किसी
अतिशय ज्ञानी से सुनकर [प्रवाद को जाना जा सकता है।]
११५. मेधावी निर्देश का अतिक्रमण न करे।
+ देखें, ५।२७, पाद-टिप्पण । इस सूत्र का वैकल्पिक अर्थ इस प्रकार किया जा सकता है
यह आत्मवादी समता का पारगामी कहलाता है।
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