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________________ लोकसार २०१ ६७. मध्यस्थ भाव रखने वाला मध्यस्थ भाव न रखने वाले से कहे-"तुम सम्यक् (सत्य) के लिए मध्यस्थ भाव का अवलम्बन करो।" ९८. पूर्वोक्त पद्धति से [व्यवहार में होने वाली सम्यग् और असम्यक् की]समस्या को सुलझाया जा सकता है । अहिंसा ९९. तुम [ संयम में ] उत्थित और स्थित पुरुष की गति को देखो।" १००. [हिंसा निर्दोष है] इस बाल-भाव में भी तुम अपने को प्रदर्शित मत करो। १०१. जिसे तू हनन योग्य मानता है, वह तू ही है।। जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू परिताप देने योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू दास बनाने योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू मारने योग्य मानता है, वह तू ही है । १०२. ज्ञानी पुरुष ऋजु तथा [हन्तव्य और घातक की एकता को समझ कर जीने वाला होता है। इसलिए वह स्वयं हनन नहीं करता और दूसरों से नहीं करवाता। १०३. अपना किया हुआ कर्म अपने को ही भुगतना होता है; इसलिए किसी के हनन की इच्छा मत करो। आत्मा १०४. जो आत्मा है, वह ज्ञाता है और जो ज्ञाता है, वह आत्मा है। क्योंकि वह जानता है, इसलिए वह आत्मा है। १०५. उस (ज्ञान की विभिन्न परिणतियों) की अपेक्षा से आत्मा का व्यपदेश होता है। + संधि-ग्रन्थि। x झोसितो-क्षपितः। ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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