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________________ लोकसार १९९ श्रद्धा ९३. शंकाशील आत्मा समाधि को प्राप्त नहीं होता। ९४. कुछ [आचार्य] के आश्रित होकर अनुगमन करते हैं; कुछ आश्रित हुए बिना अनुगमन करते हैं। अनुगमन करने वालों के बीच में अनुगमन नहीं करने वाला [संयम के प्रति] उदासीन कैसे नहीं होगा ? ९५. वही सत्य और निःशंक है, जो तीर्थंकरों के द्वारा प्ररूपित है। माध्यस्थ्य ९६. श्रद्धालु, सम्यग् अनुज्ञा (या आचार)वाला तथा सम्यग् प्रव्रज्या वाला मुनि किसी व्यवहार को सम्यग् मानता है और वास्तव में वह सम्यग् है । वह किसी व्यवहार को सम्यग् मानता है और वास्तव में वह असम्यग् है। वह किसी व्यवहार को असम्यग् मानता है और वास्तव में यह सम्यग् है। वह किसी व्यवहार को असम्यग् मानता है और वास्तव में वह असम्यग है। व्यवहार वास्तव में सम्यग् हो या असम्यग्, किन्तु सम्यग् मानने वाले के मध्यस्थ (राग-द्वेष रहित या निष्पक्ष) भाव के कारण वह सम्यग् होता है।३८ व्यवहार वास्तव में सम्यग् हो या असम्यग्, किन्तु असम्यग् मानने वाले के मध्यस्थ भाव के कारण वह असम्यग् होता है । xचूर्णिकार और वृत्तिकार 'सित' और 'असित' शब्द मानकर इनका अर्थ 'गृहस्थ' और 'मुनि' किया है । हमने 'श्रित' और 'अभित' मानकर इनका अर्थ किया है। +इस सूत्र के वैकल्पिक अनुवाद इस प्रकार किए जा सकते हैं १. कुछ मुनि [आचार्य का] अनुगमन करते हैं; कुछ गृहस्थ भी उनका अनुगमन करते हैं । अनुगमन करने वालों के बीच में अनुगमन नहीं करने वाला [संयम के प्रति उदासीन कैसे नहीं होगा? २. [आचार्य द्वारा सूक्ष्म तत्त्व का विश्लेषण करने पर उसमें शंका] रखने वाले भी उसे समझ लेते हैं और [शंका नहीं रखने वाले भी उसे समझ लेते हैं। उन समझने वालों के मध्य में नहीं समझने वाला शंकाशील रहकर [संयम के प्रति] उदासीन कैसे नहीं होगा ? + समणुन्न-सम्यग् अनुज्ञा योग्यता यस्य सः समनुज्ञ:। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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