________________
लोकसार
१९७
८५. [ कहीं-कहीं ] पहले दण्ड और पीछे स्पर्श ( इन्द्रिय-सुख ) होता है, [ कहीं-कहीं ] पहले स्पर्श और पीछे दण्ड होता है ।
८६. ये काम - भोग कलह और आसक्ति उत्पन्न करने वाले होते हैं । आगम की शिक्षा को ध्यान में रखकर [ आचार्य ] उनके अनासेवन की आज्ञा दे - उनके कटु परिणामों का शिष्य को ज्ञान कराए। ऐसा मैं कहता हूं |
८७. ब्रह्मचारी काम-कथा न करे; वह वासनापूर्ण दृष्टि से न देखे ; वह परस्पर कामुक भावों का प्रसारण न करे; ममत्त्व न करे; शरीर की साज-सज्जा न करे; मौन करे; मन का संवरण करे; सदा पाप का परिवर्जन करे ।
८८.
इस (अब्रह्मचर्य - विरति रूप) ज्ञान का तू सम्यक् पालन कर ।
पंचम उद्देशक
आचार्य
८९. मैं कहता हूं, जैसे -
एक द्रह है, जो [कमल से ] प्रतिपूर्ण है, समभूभाग में स्थित है, पङ्करहित है, [ जलचर जीवों का ] संरक्षण कर रहा है और स्रोत के मध्य में विद्यमान है ।"
Jain Education International 2010_03
- ऐसा मैं कहता हूं ।
९०. लोक में विद्यमान, सर्वतः ( मन, वचन और काया से) गुप्त महर्षियों को तू देख, जो प्रज्ञावान्, प्रबुद्ध और आरम्भ से उपरत हैं।
३४
९१. यह सम्यग् है । इसे तुम देखो । १५
९२. वे जीवन के अन्तिम क्षण तक [ संयम में] परिव्रजन करते हैं । ऐसा मैं कहता हूं ।
X इस सूत्र का वैकल्पिक अनुवाद इस प्रकार है--वे काल की प्रतीक्षा करते हुए परिव्रजन करते हैं—न मृत्यु की आशंसा और न उसका भय करते हैं ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org