SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 220
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लोकसार १९३ ६८. मुनि उस (महावीर के दर्शन) में दृष्टि नियोजित कर, उसमें तन्मय हो, उसे प्रमुख बना, उसकी स्मृति में एकरस हो और उसमें दत्तचित होकर उसका __ अनुसरण करे। ईर्या ६९. मुनि संयमपूर्वक चित्त को गति में एकाग्र कर, पंथ पर दृष्टि टिका कर चले। जीव-जन्तु को देख कर पैर को संकुचित कर ले और मार्ग में आने वाले प्राणियों को देखकर चले। ७०. वे प्राणी' सामने आ रहे हों, लौट रहे हों, संकुचित हो रहे हों, फैल रहे हों, ठहरे हुए हों या धूलि में डूबते-तैरते हों। कर्म का बंध और विवेक ७१. किसी समय प्रवृत्ति करते हुए अप्रमत्त (सातवें गुणस्थान से तेरहवें गुणस्थान वाले) मुनि के शरीर का स्पर्श पाकर कुछ प्राणी परितप्त होते हैं या मर जाते हैं। ७२. [विधिपूर्वक प्रवृत्ति करते हुए प्रमत्त (षष्ठ गुणस्थान वाले) मुनि के कायस्पर्श से कोई प्राणी परितप्त हो या मर जाए, तो उसके वर्तमान जीवन में वेदनीय कर्म का बंध होता है। x चूर्णिकार ने ६८वें सूत्र की व्याख्या आचार्यपरक और ६९वें सूत्र की ईर्यापरक की है । टीकाकार ने दोनों सूत्रों की व्याख्या आचार्यपरक की है। केवल 'पासिय पाणे गच्छेज्जा' इस वाक्य की ईपिरक व्याख्या की है। दोनों व्याख्याकारों ने यह बतलाया है कि ६६वें सूत्र से आयार-चूला के ईर्या नामक तीसरे अध्ययन का विकास किया गया है। चूर्णिकार ने आयार-चूला के उपोद्घात में लिखा है कि ६२, ६८, ६६ और ७०वें सूत्रों से ईर्या नामक अध्ययन विकसित किया गया है। उक्त संदों तथा उत्तराध्ययन २४१८ के 'तम्मुत्ती तप्पुरक्कारे उवउत्ते'-इन शब्दों के आधार पर इन दोनों सूत्रों का अनुवाद ईर्यापरक किया जा सकता है, किन्तु हमने ५११०६ की चूणि के आधार पर सूव ६८ का कुशल (महावीर) परक अनुवाद किया है । + प्रस्तुत सूत्र का अनुवाद 'अभिक्कममाणे' आदि पदों को 'पाणे' का विशेषण तथा द्वितीया का बहुवचनान्त मानकर किया है। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy