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________________ लोकसार १९१ ६०. समत्वदर्शी x वीर प्रान्त (नीरस) और रूक्ष [ आहार आदि ] का सेवन करते हैं । ६१. यह जन्म-मृत्यु के प्रवाह को तरने वाला मुनि तीर्ण, मुक्त और विरत कहलाता है । - ऐसा मैं कहता हूं । चतुर्थ उद्देशक अव्यक्त का एकाकी विहार ६२. जो भिक्षु अव्यक्त अवस्था में [ अकेला ] ग्रामानुग्राम विहार करता है, वह उपद्रवों से अभिभूत होता है और अवांछनीय पराक्रम करता है। २१ २२ ६३. [ अव्यक्त ] मनुष्य [ थोड़े से प्रतिकूल ] वचन से भी कुपित हो जाते हैं ।" ६४. [ अव्यक्त ] मनुष्य प्रशंसित होने पर महान् मोह से मूढ़ हो जाता है । ६५. अज्ञानी और अद्रष्टा (अव्यक्त) मनुष्य बार-बार आने वाली बहुत सारी बाधाओं का पार नहीं पा सकता । " ६६. ['मैं अव्यक्त अबस्था में अकेला विहार करूं' - ] यह तुम्हारे मन में भी न हो । ६७. यह महावीर का दर्शन है [ - अव्यक्त के एकाकी विहार में ये दोष उनके द्वारा दृष्ट हैं ।] देखिए, २।१६४ का पाद-टिप्पण । Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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