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________________ लोकसार १८९ ५१. इस प्रकार कर्म [और उसके हेतु ] को पूर्ण रूप से जानकर वह किसी की हिंसा नहीं करता । वह [ इन्द्रियों का ] संयम करता है, [ उनका ] उच्छृंखल व्यवहार नहीं करता है । ५२. सुख अपना-अपना होता है ( हुआ [ वह किसी की हिंसा न करे ] । ५३. मुनि यश का इच्छुक होकर किसी भी क्षेत्र में कुछ भी न करे । ५४. मुनि अपने लक्ष्य की ओर मुख किए [ चले ]; वह [ ज्ञान, दर्शन और चारित्र की ] विरोधी दिशाओं का पार पा जाए; [ वस्तुओं के प्रति ] विरक्त रहे; स्त्रियों में रत न बने । " हर प्राणी सुख का इच्छुक है) – यह देखता ५५. बोधि-सम्पन्न साधक के लिए पूर्ण सत्य - प्रज्ञ अन्तःकरण से पाप-कर्म (हिंसा का आचरण व विषय का सेवन ) अकरणीय है ।" ५६. [ इसलिए ] साधक उसका अन्वेषण न करें । ५७. तुम देखो - जो सम्यक् है, वह ज्ञान' है; जो ज्ञान है, वह सम्यक् है । " २० ५८. जिनकी धृति मन्द है, जो स्नेहार्द्र हैं, विषयलोलुप हैं, मायापूर्ण आचार वाले हैं, प्रमत्त हैं और जो गृहवासी हैं, उनके लिए यह (ज्ञान) शक्य नहीं है । ५९. मुनि ज्ञान को प्राप्त कर, कर्म - शरीर को प्रकम्पित करे । x 'वर्ण' शब्द के प्रासंगिक अर्थ दो हैं—यश और रूप । रूप के सन्दर्भ में प्रस्तुत सूत्र का अनुवाद इस प्रकार हो सकता है-मुनि सौन्दर्य बढ़ाने का इच्छुक होकर कोई भी प्रवृत्ति न करे -- औषधि आदि का प्रयोग न करे । वैकल्पिक रूप में इसका अर्थ यह भी किया जा सकता है-मुनि रूप (विषय) का इच्छुक होकर कहीं भी कुछ भी न करे । + देखिए, २।१०३ का पाद-टिप्पण । + देखिए, २ १०३ का पाद-टिप्पण । Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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