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________________ लोकसार १८५ ३२. यह परिग्रह ही परिग्रही के लिए महाभय का हेतु होता है । तुम लोक-वृत्त को देखो। ३३. जो परिग्रह की आसक्तियों को नहीं जानता, [वह महाभय को प्राप्त होता ३४. [परिग्रह महाभय का हेतु है.-] यह [प्रत्यक्षज्ञानी के द्वारा सम्यक् प्रकार से दृष्ट और उपदर्शित है। [इसलिए] परमचक्षुष्मान् पुरुष ! तू [परिग्रहसंयम के लिए पराक्रम कर। ३५. परिग्रह का संयम करने वालों में ही ब्रह्मचर्य होता है। ऐसा मैं कहता हूं।" ३६. मैंने सुना है, मैंने अनुभव किया है-बंध और मोक्ष तुम्हारी आत्मा में ही है। ३७. परिग्रह से विरत अनगार [अपरिग्रह के कारण उत्पन्न होने वाले] परीषहों को जीवन-पर्यन्त सहन करे। तू देख ! जो प्रमत्त हैं, वे साधुत्व से परे हैं। इसलिए तू अप्रमत्त होकर परिव्रजन कर। ३८. इस (अहिंसा और अपरिग्रह रूप) ज्ञान का तू सम्यक् पालन कर । -ऐसा मैं कहता हूं। तृतीय उद्देशक अपरिग्रह और काम-निर्वेद ३९. इस जगत् में जितने मनुष्य अपरिग्रही हैं, वे इन (वस्तुओं) में [मूर्छा न रखने और उनका संग्रह न करने के कारण] ही अपरिग्रही हैं। ४०. "तीर्थंकरों ने समता में धर्म कहा है।" -आचार्य की यह वाणी सुनकर, मेधावी साधक उसे हृदयंगम करे। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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