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लोकसार
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२३. पुरुष [अप्रमाद की साधना में] उत्थित होकर प्रमाद न करे।
२४. दुःख और सुख व्यक्ति का अपना-अपना होता है-[यह जानकर प्रमाद न
करे] । २५. इस जगत् में मनुष्य नाना प्रकार की इच्छा वाले होते हैं । उनका दुःख भी
नाना प्रकार का होता है।
२६. वह [सुख-दुःख का अध्यवसाय स्वतंत्र होता है-यह जानने वाला] किसी
की हिंसा न करे, [सूक्ष्म-जीवों के अस्तित्व को] अस्वीकार न करे। [ऐसा करने पर] जो कष्ट प्राप्त हों, उन्हें समभाव से सहन करे।
२७. यह (अहिंसक और सहिष्णु साधक) सत्य का पारगामी कहलाता है।
२८. जो मुनि पाप-कर्म में आसक्त नहीं हैं, उन्हें भी कभी-कभी शीघ्रघाती रोग
पीडित कर देते हैं। इस पर भगवान् महावीर ने ऐसा कहा---'उन शीघ्रघाती रोगों के उत्पन्न होने पर मुनि उन्हें सहन करे।'
२९. तुम इस शरीर को देखो। यह पहले या पीछे एक दिन अवश्य ही छूट जायेगा।
विनाश और विध्वंस इसका स्वभाव है। यह अध्रुव, अनित्य और अशाश्वत है। इसका उपचय और अपचय होता है। इसकी विविध अवस्थाएं होती
३०. जो [कर्म-] विवर को देखता है, एक आयतन (वीतरागता) में लीन है,
ऐहिक (शरीर आदि के) ममत्व से मुक्त है, हिंसा से विरत है, उसके लिए कोई मार्ग नहीं है। ऐसा मैं कहता हूं।'
परिग्रह
३१. इस जगत् में जितने मनुष्य परिग्रही हैं, वे अल्प या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल,
सचित्त या अचित्त वस्तु का परिग्रहण करते हैं। वे इन (वस्तुओं) में [मूर्छा
रखने के कारण] ही परिग्रही हैं। x वृत्तिकार ने 'समिया-परियाये' के दो अर्थ किए हैं-'सम्यक् प्रव्रज्या वाला' और
'शमिता-शान्त प्रव्रज्या वाला। + वैकल्पिक अर्थ--यह (अहिंसक और सहिष्णु साधक) समता का पारगामी कहलाता है।
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