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सम्यक्त्व
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४१. [जिसके इन्द्रिय और मन शांत होते हैं, उसके कर्म-क्षय शीघ्र होता है]
इसलिए प्रसन्नमना, वीर, विशारद, सम्यक् प्रवृत्त और [ज्ञान, दर्शन एवं चारित्न] सहित मुनि सदा [इन्द्रिय और मन का] संयम करे।
४२. जीवन-पर्यन्त संयम-यात्रा में चलने वाले वीर मुनियों का मार्ग दुरनुचर होता
है-उस पर चलना कठिन होता है।' ४३. मांस और रक्त का विवेक कर ।
४४. वह [मांस और रक्त का विवेक करने वाला] पुरुष राग-द्वेष-मुक्त, पराक्रमी
और अनुकरणीय होता है । वह ब्रह्मचर्य (संयम) में रहकर शरीर और कर्मशरीर को कृश कर देता है।
४५. इन्द्रिय-जय की साधना करते हुए भी जो [मोह से आक्रान्त होकर] इन्द्रिय
विषयों में आसक्त हो जाता है और जो [राग-द्वेष में अभिभूत होकर] पारिवारिक बन्धन एवं आर्थिक अनुबन्ध को तोड़ नहीं पाता, वह [आसक्ति के] अन्धकार में प्रविष्ट होकर [विषय-लोलुपता के दोषों से] अनभिज्ञ हो जाता है। ऐसा साधक आज्ञा का लाभ नहीं उठा पाता। ऐसा मैं कहता हूं।
४६. जिसका आदि-अन्त नहीं है, उसका मध्य कहां से होगा?१२
+ जिसका मन अरति, भय और शोक से मुक्त होता है, वह अविमना अर्थात् प्रसन्नमना
कहलाता है। x 'सारए' शब्द के संस्कृत रूप-स्वारत, संरत, सारक और शारद ही सकते हैं । चूर्णिकार
और वृत्तिकार ने 'स्वारत' शब्द की व्याख्या की है। जो तप, धर्म, वैराग्य, अप्रमाद, ज्ञान, दर्शन और चारित्र तथा समिति और गुप्ति में अत्यधिक रत होता है, वह 'स्वारत' कहलाता है।
डा. हर्मन जेकोबी ने इसका अनुवाद सारक (a person of pith-सारवान्) किया है।
सूत्रकृतांग में तीन स्थलों पर 'विशारद' शब्द का प्रयोग मिलता है (११३१५०, १।१३।१३, १।१४।१७) । उसके आधार पर यहां 'सारए' का 'शारद' रूप संगत लगता है। जो अर्थ-ग्रहण में पटु होता है, वह 'विशारद' कहलाता है । * ब्रह्मचर्य के तीन अर्थ होते हैं (द्रष्टव्य, टिप्पण ५।३५)
१. आचार, २. मथुन-विरति और ३. गुरुकुल। यहां यह आचार के अर्थ में प्रयुक्त है। मैथुन-विरति आचार का ही एक अंग है।
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