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३३. जैसे अग्नि जीर्ण काष्ठ को शीघ्र जला देती है, वैसे ही समाहित आत्मा वाला तथा अनासक्त पुरुष कर्म शरीर को प्रकम्पित, कृश और जीर्ण कर देता है ।"
सम्यक्त्व
३४. यह आयु सीमित है - यह संप्रेक्षा करता हुआ अकम्पित रह कर क्रोध का विवेक कर ।
३५. वर्तमान अथवा भविष्य में होने वाले दुःखों को जान ।"
३६. क्रोधी मनुष्य नाना प्रकार के दुःखों और रोगों को भोगता है ।
३७. तू देख ! यह लोक चारों ओर प्रकम्पित हो रहा है।
३८. जो
पुरुष पाप कर्मों (हिंसा, विषय और कषाय के प्रकम्पन) को शान्त कर देते हैं, वे अनिदान (बन्धन के हेतु से मुक्त ) कहलाते हैं ।
३९. इसलिए हे त्रिविद्य पुरुष ! तू [ विषय और कषाय की अग्नि से ] अपने-आप को प्रज्वलित मत कर ।
- ऐसा मैं कहता हूं ।
चतुर्थ उद्देशक
सम्यग् चारित्र
४०. मुनि पहले [ वस्तु और प्राणी से होने वाले ] सम्बन्ध को त्याग, इन्द्रिय और मन को शांत कर [ शरीर का ] आपीडन, फिर प्रपीडन और फिर निष्पीडन करे ।"
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