SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यक्त्वं १५५ ७. वह लोकैषणा न करे। ८. जिसे इस [अहिंसा-धर्म] का ज्ञान नहीं है, उसे अन्य (तत्त्वों) का ज्ञान कहां से होगा? ९. यह [अहिंसा-धर्म] जो कहा जा रहा है, वह दृष्ट, श्रुत, मत और विज्ञात है।' १०. हिंसा में जाने वाले और लीन रहने वाले मनुष्य बार-बार जन्म लेते हैं । ११. दिन-रात यत्न करने वाले ! सदा लब्धप्रज्ञ साधक ! तू देख जो प्रमत्त हैं, [वे धर्म से] बाहर हैं । इसलिए तू अप्रमत्त होकर सदा पराक्रम कर। -ऐसा मैं कहता हूं। द्वितीय उद्देशक सम्यग्ज्ञान : अहिंसा-सिद्धान्त की परीक्षा १२. जो आस्रव हैं-कर्म का बंध करते हैं, वे ही परिस्रव हैं-कर्म का मोक्ष करते हैं। जो परिस्रव हैं-कर्म का मोक्ष करते हैं, वे ही आस्रव हैं-कर्म का बंध करते हैं। जो अनास्रव हैं-कर्म का बंध नहीं करते, वे ही अपरिस्रव हैं-कर्म का मोक्ष नहीं करते । जो अपरिस्रव हैं-कर्म का मोक्ष नहीं करते, वे ही अनास्रव हैं-कर्म का बंध नहीं करतेइन पदों (भंगों) को समझने वाला विस्तार से प्रतिपादित [जीव] लोक को आज्ञा से जानकर [आस्रव न करे] ।' १३. जो संसार-स्थित (परोक्षदर्शी) हैं, सम्बोधि पाने को उन्मुख हैं, मेधावी हैं, उन मनुष्यों को ज्ञानी धर्म का बोध देते हैं। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy