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सम्यक्त्वं
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७. वह लोकैषणा न करे।
८. जिसे इस [अहिंसा-धर्म] का ज्ञान नहीं है, उसे अन्य (तत्त्वों) का ज्ञान कहां
से होगा?
९. यह [अहिंसा-धर्म] जो कहा जा रहा है, वह दृष्ट, श्रुत, मत और विज्ञात है।'
१०. हिंसा में जाने वाले और लीन रहने वाले मनुष्य बार-बार जन्म लेते हैं ।
११. दिन-रात यत्न करने वाले ! सदा लब्धप्रज्ञ साधक ! तू देख
जो प्रमत्त हैं, [वे धर्म से] बाहर हैं । इसलिए तू अप्रमत्त होकर सदा पराक्रम कर।
-ऐसा मैं कहता हूं।
द्वितीय उद्देशक
सम्यग्ज्ञान : अहिंसा-सिद्धान्त की परीक्षा १२. जो आस्रव हैं-कर्म का बंध करते हैं,
वे ही परिस्रव हैं-कर्म का मोक्ष करते हैं। जो परिस्रव हैं-कर्म का मोक्ष करते हैं, वे ही आस्रव हैं-कर्म का बंध करते हैं। जो अनास्रव हैं-कर्म का बंध नहीं करते, वे ही अपरिस्रव हैं-कर्म का मोक्ष नहीं करते । जो अपरिस्रव हैं-कर्म का मोक्ष नहीं करते, वे ही अनास्रव हैं-कर्म का बंध नहीं करतेइन पदों (भंगों) को समझने वाला विस्तार से प्रतिपादित [जीव] लोक को आज्ञा से जानकर [आस्रव न करे] ।'
१३. जो संसार-स्थित (परोक्षदर्शी) हैं, सम्बोधि पाने को उन्मुख हैं, मेधावी हैं,
उन मनुष्यों को ज्ञानी धर्म का बोध देते हैं।
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