SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शीतोष्णीय ६९. सत्य का साधक दुःख मात्रा से स्पृष्ट होने पर व्याकुल न हो । ७०. [सत्य को ] देखने वाला वीतराग व्यक्ति लोक के दृष्ट प्रपंच से मुक्त हो जाता है । - ऐसा मैं कहता हूं । चतुर्थ उद्देशक कषाय- विरति ७१. साधक क्रोध, मान, माया और लोभ का वमन करने वाला होता है । ७२. यह अहिंसक और निरावरण द्रष्टा का दर्शन है । ७३. जो पुरुष [ कर्म के ] उपादान [ राग-द्वेष ] को रोकता है, वही अपने किए हुए [ कर्म] का भेदन कर पाता है । ७४. जो एक को जानता है, वह सबको जानता है । जो सबको जानता है, वह एक को जानता है । २२ ७५. प्रमत्त को सब ओर से भय होता है । अप्रमत्त को कहीं से भी भय नहीं होता । ७६. जो एक को झुकाता है, वह बहुतों को झुकाता है । बहुतों को झुकाता है, वह एक को झुकाता है।" ७७. पुरुष लोक के दुःख को जानकर [ उसके हेतुभूत कषाय का परित्याग करे ] । २३ X पाठान्तर का अनुवाद इस प्रकार है १३९ जो एक स्वभाव वाला है, वह अनेक स्वभाव वाला है । जो अनेक स्वभाव वाला है, वह एक स्वभाव वाला है । Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy