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'श्रोत्र के विषय में आए हुए शब्दों को न सुनना शक्य नहीं है। किन्तु उनके प्रति होने वाले राग-द्वेष का त्याग शक्य है। इसलिए भिक्षु उनमें राग से रंजित
और द्वेष से दूषित न हो। इसी प्रकार चक्षु के विषय में आने वाले रूपों को न देखना, घ्राण के विषय में आने वाली गंध का अनुभव न होना, जिह्वा के विषय में आने वाले रस का आस्वाद न होना, स्पर्शन के विषय में आने वाले स्पर्शों का संवेदन न होना शक्य नहीं है, किन्तु उनके प्रति राग-द्वेष न करना शक्य है। इस लिए भिक्षु विषयों के प्रति राग-द्वेष न करे।'
राग-द्वेष रहित कर्म ही आचार है। सूत्रकार ने राग-द्वेष युक्त कर्म का परित्याग करने वाले को ज्ञानी कहा है। भगवान् महावीर ने इस वीतरागता-मूलक आचार के अनेक रूपों का प्रतिपादन किया। उनमें पहला रूप है--- अहिंसा। प्रथम अध्ययन में उसका विस्तार से प्रतिपादन किया है । अगले अध्ययनों में वृत्तियों की अहिंसा, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, अनासक्ति, सत्य आदि के विषय में अनेक निर्देश दिए हैं। इस आचार-शास्त्र को दूसरे शब्दों में समता का शास्त्र कहा जा सकता है।
भगवान् महावीर समता के शास्ताथे। उन्होंने समता के शासन द्वारा जीवन के रूपान्तरण की दिशा प्रदर्शित की। उन्होंने इस शासन को आरोपित नहीं किया किन्तु उसे स्वीकृत करने के लिए व्यक्ति को पूर्ण स्वतंत्रता दी। भगवान् ने कहादेखो ! जो द्रष्टा होता है, उसके लिए उपदेश आवश्यक नहीं होता। जो द्रष्टा होता है वह समग्र वस्तु-समूह को दूसरे दृष्टिकोण से देखने लग जाता है
अण्णहा गं पासए परिहरेज्जा ।। समता के द्वारा जीवन के रूपान्तरण की प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत आगम को अनुवाद और टिप्पण-सहित भगवान् महावीर की इस २५ वीं निर्वाण-शताब्दी के अवसर पर जनता के सम्मुख प्रस्तुत करते हुए मुझे अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव हो रहा है।
-आचार्य तुलसी
णो सक्का रसमणासाउ, जीहाविसयमामयं । रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवब्जए ॥ णो सक्का ण संवेदे', फासविसयमागयं ।
रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवजए ॥ १. बायारो, १११३:
अस्सेते लोगसि कम्म-समारंभा परिणाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे । २. आयारो, २१८५ :
उद्देसो पासगस्स पत्थि । ३. आयारो, २१११८ ।
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