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________________ शीतोष्णीय १३१ ३१. कामों में आसक्त मनुष्य संचय करते हैं। [संचय की आसक्ति का] सिंचन पाकर वे बार-बार जन्म को प्राप्त होते हैं।" ३२. आसक्त मनुष्य हास्य-विनोद में जीवों का वध कर प्रमोद मनाता है। ऐसे हास्य-प्रसंग से उस अज्ञानी को क्या लाभ ? उससे वह [प्राणियों के साथ] अपना वैर बढ़ाता है।११ ३३. इसलिए त्रिविद्य परम को जानकर [हिंसा आदि में आतंक देखता है।] जो [हिंसा आदि में | आतंक देखता है, वह पाप (हिंसा आदि का आचरण) नहीं करता। ३४. हे धीर ! तू [दुःख के] अग्न और मूल का विवेक कर। ३५. पुरुष [संयम और तप के द्वारा राग-द्वेष को] छिन्न कर आत्मदर्शी हो जाता है। ३६. आत्मदर्शी मृत्यु से मुक्त हो जाता है । ३७. उस आत्मदर्शी मुनि ने ही पथ को देखा है। ३८. जो लोक में परम को देखता है, वह विविक्त जीवन जीता है । वह उपशान्त, सम्यक् प्रवृत्त, [ज्ञान आदि से] सहित और सदा अप्रमत्त होकर जीवन के अन्तिम क्षण तक परिव्रजन करता है।" ३९. [इस जीव ने] अतीत में बहुत पापकर्म किए हैं। ४०. तू सत्य में धृति कर। + इस सूत्र का वैकल्पिक अनुवाद इस प्रकार किया जा सकता है---यह [हास्य-विनोद में किया हुआ वध] उस अज्ञानी के संग कर्मबन्ध] के लिए पर्याप्त है। उससे वह अपना वैर बढ़ाता है। + तुलना-'भिक्षुओ ! यह आशा करनी चाहिए कि दोष में भय मानने वाला, दोष में भय देखने वाला सभी दोषों से मुक्त हो जाएगा।' (-अंगुत्तरनिकाय, भा० १,१०५१) ४ सत्व को धारण कर, उसमें आनन्द का अनुभव कर. उससे विचलित न हो। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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