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________________ शीतोष्णीय १२७ १८. कर्ममुक्त (शुद्ध) आत्मा के लिए कोई व्यवहार नहीं होता - नाम और गोत्र का व्यपदेश नहीं होता । " १९. उपाधि कर्म से होती है ।" २०. कर्म का निरीक्षण कर [ उसे तोड़ने का प्रयत्न करो ] । २१. कर्म का मूल हिंसा है।x २२. पुरुष कर्म का निरीक्षण कर पूर्ण संयम को स्वीकार करे । C २३. पुरुष [ राग और द्वेष - इन] दो अंतों से दूर रहे । २४. मेधावी [ राग-द्वेष को ] जाने और छोड़े । २५. मतिमान् पुरुष [ विषय ] लोक को जानकर, लोकसंज्ञा (विषयासक्ति) को त्याग कर [ संयम में ] पराक्रम करे । ऐसा मैं कहता हूं । द्वितीय उद्देशक परमबोध २६. हे आर्य ! तू जन्म और वृद्धि को देख । " २७. तू जीवों [ के कर्म-बंध और कर्म विपाक ] को जान और उनके सुख [-दुःख ] को देख+ 1 * इस सूत्र का वैकल्पिक अनुवाद इस प्रकार है-हिंसा का मूल कर्म है । + इस सूत्र का वैकल्पिक अनुवाद इस प्रकार है-तू सब प्राणियों को [आत्म-तुल्य ] समझ और [ इस सत्य को ] पहचान - [ जैसे तुझे ] सुख [प्रिय और दुःख अप्रिय है, वैसे ही सबको सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है ।] Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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