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शीतोष्णीय
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प्रथम उद्देशक
सुप्त और जागृत १. अज्ञानी सदा सोते हैं। ज्ञानी सदा जागते हैं।'
२. तुम जानो--इस लोक में अज्ञान अहित के लिए होता है।
३. 'सब आत्माए समान हैं'-यह जानकर पुरुष समूचे जीव-लोक की हिंसा
से उपरत हो जाए।
४. जो पुरुष इन-शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्शों-को भली-भांति जान
लेता है--उनमें राग-द्वेष नहीं करता, वह आत्मबान्, ज्ञानवान्, वेदवान्, धर्मवान् और ब्रह्मवान् होता है।
५. जो पुरुष अपनी प्रज्ञा से लोक को जानता है, वह मुनि' कहलाता है। वह
धर्मवित् और ऋजु होता है।
६. [आत्मवान् मुनि ] आसक्ति को चक्राकार स्रोत के रूप में देखता है।
७. निर्ग्रन्थ सर्दी और गर्मी को सहन करता है। वह अरति (संयम में होने वाले
विषाद) और रति (असंयम में होने वाले आह्लाद) को सहन करता हैउनसे विचलित नहीं होता । वह कष्ट का वेदन नहीं करता।
+ 'अज्ञान' 'दुःख' शब्द का अनुवाद है । अज्ञान दुःख का हेतु होता है, इसलिए सूत्रकार ने
अज्ञान के स्थान पर 'दुःख' का प्रयोग किया है । चूणिकार के अनुसार कर्म दु:ख का हेतु होता है। इसलिए उन्होंने 'दुःख' का अर्थ कर्म किया है। 'अज्ञान' ज्ञानावरण कर्म
आदि से सम्बन्धित है; इसलिए प्रकरणवश इसका अर्थ 'अज्ञान' किया जा सकता है। + मुनि का अर्थ ज्ञानी है । यह शब्द प्राकृत को ज्ञानार्थक 'मुण' धातु से निष्पन्न होता है। वृत्तिकार ने मुनि का निरुक्त इस प्रकार किया है-मनुते मन्यते वा जगतः त्रिकालावस्था मुनिः-जो जगत् की वैकालिक अवस्था को जानता है, वह मुनि होता है। X धर्म का अर्थ है-स्वभाव । द्रव्य के स्वभाव या साधना की दृष्टि से आत्मा के स्वभाव को जानने वाला धर्मवित् कहलाता है।
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