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________________ लोक-विजय १०७ १७६. तुम जानो-[धर्म-कथा की विधि न जानने वाले धर्मकथी द्वारा की जाने वाली] धर्म-कथा में भी श्रेय नहीं है।३५ १७७. [धर्मकथी धर्म-कथा के समय परिषद् का विवेक करे-] 'यह पुरुष कौन है ? किस दर्शन का अनुयायी है ?' १७८. वही वीर प्रशंसित होता है, जो [समीचीन उपदेश के द्वारा] बंधे हुए मनुष्यों को मुक्त करता है। १७९. वह ऊंची दिशा, नीची दिशा और तिरछी दिशा-सब दिशाओं में सब ओर से समग्र परिज्ञा (विवेक) के द्वारा चलता है। १८०. वीर पुरुष हिंसा-स्थान से लिप्त नहीं होता। १८१. जो बंध से मुक्त होने की खोज करता है, वह मेधावी अहिंसा के मर्म को जान लेता है। १८२. कुशल न बद्ध होता है और न मुक्त होता है । १८३. वह (कुशल) किसी प्रवृत्ति का आचरण करता है और किसी का आचरण नहीं करता ; मुनि उसके द्वारा अनाचीर्ण प्रवृत्ति का आचरण न करे । १८४. पुरुष प्रत्येक हिंसा-स्थान को जाने और छोड़े। उसी प्रकार लोक-संज्ञा (लौकिक सुख) को सब प्रकार से जाने और छोड़े। १८५. द्रष्टा (सत्यदर्शी) के लिए कोई निर्देश नहीं है। १८६. अज्ञानी पुरुष स्नेहवान् और काम-प्रिय होकर दुःख का शमन नहीं कर पाता। वह [शारीरिक और मानसिक दुःखों से] दुःखी बना हुआ दुःखों के आवर्त में अनुपरिवर्तन करता रहता है । -ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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