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लोक-विजय
१५७. जिसके पास परिग्रह नहीं है, उसी मुनि ने पथ को देखा है।
१५८. मेधावी पुरुष उसे (परिग्रह के स्वरूप को) जाने और उसका त्याग करे।
१५९. मतिमान् पुरुष [परिग्रह-] लोक [के परिणामों को जानकर लोक-संज्ञा
(अर्थासक्ति) को त्याग कर [संयम में] पराक्रम करे । ऐसा मैं कहता हूं।
अनासक्त का व्यवहार १६०. वीर पुरुष [संयम-साधना में उत्पन्न] अरति को सहन नहीं करता
-तत्काल ध्यान के द्वारा उसे मन से निकाल देता है। वह [असंयम में उत्पन्न] रति को सहन नहीं करता-तत्काल ध्यान के द्वारा उसका रेचन कर देता है, क्योंकि वह [इष्ट और अनिष्ट विषयों के प्रति] विमनस्क नहीं होता-मध्यस्थ रहता है। इसलिए वह आसक्त नहीं होता।
१६१. [अनासक्त] शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श को सहन करता है-उन के
प्रति राग-द्वेषपूर्ण मन का निर्माण नहीं करता।
१६२. पुरुष ! तू [असंयमी] जीवन में होने वाले प्रमोद से अपना आकर्षण हटा ले।
१६३. मुनि ज्ञान' को प्राप्त कर कर्म-शरीर को प्रकम्पित करे।
१६४. समत्वदर्शी वीर प्रान्त (नीरस) और रूक्ष [आहार आदि] का सेवन
करते हैं। + देखिए, २.१०३ का पाद-टिप्पण। x वृत्ति कार ने 'सम्मत्तदंसिणो' इस पद का मूल अर्थ समत्वदर्शी और वैकल्पिक अर्थ
सम्यक्त्वदर्शी किया है । इससे प्रतीत होता है कि उनके सामने मूल पाठ 'समत्तदंसिणो' रहा है। यहां 'समत्वदर्शी' अर्थ अधिक संगत है, क्योंकि समत्वदर्शी ही नीरस आहार का समभाव से सेवन कर सकता है। दशवकालिक (५।१।९७) के निम्नलिखित पद्य से इसकी पुष्टि होती है
तित्तगं व कडुयं व कसायं अंबिल व महुरं लवणं वा।
एय लद्धमन्नट्ठ-पउत्तं महु-धयं व मुंज्ज संजए ।। -~~गृहस्थ के लिए बना हुआ तीता (तित्त) या कटुवा, कसला या खट्टा, मीठा या नमकीन, जो भी आहार उपलब्ध हो उसे संयमी मुनि मधुघृत की भांति खाए।
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