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________________ लोक-विजय १०१ षष्ठ उद्देशक परिग्रह-परित्याग १४८. वह (संयमी साधक) उसे (परिग्रह के परिणाम को) समीचीन दृष्टि से समझकर संयम की साधना में सावधान हो जाता है। १४९. इसलिए वह पापकर्म (संग्रह) स्वयं न करे और दूसरों से न करवाए। १५०. यह सम्भव है कि जो किसी एक अव्रत का स्पर्श करता है, वह छहों [हिंसा, असत्य, अस्तेय, अब्रह्मचर्य, परिग्रह और रात्रि-भोजन] में से किसी भी [अवत] का स्पर्श कर सकता है (-सबका करता है)। १५१. सुख का अर्थी [संग्रह में प्रवृत्त होता है] 1 [जो सुख का अर्थी होता है, वह] बार-बार [सुख की कामना करता है। [इस प्रकार वह] अपने द्वारा कृत [कामना की व्यथा से मूढ़ होकर विपर्यास को प्राप्त होता है [ --सुख का अर्थी होकर दुःख को प्राप्त होता है । १५२. वह अपने अति प्रमाद के कारण गतिचक्र' (जन्म-शृंखला) का निर्माण करता है। १५३. ये प्राणी जिसमें व्यथित होते हैं, यह देखकर उस (संग्रह) का संकल्प न करे। १५४. इसे (ममत्व-विसर्जन को) परिज्ञा (विवेक) कहा जाता है। १५५. [यह परिज्ञा] कर्म की उपशान्ति है।" १५६. जो परिग्रह की बुद्धि का त्याग करता है, वही परिग्रह को त्याग सकता है। लालप्पमाणे की व्याख्या चूणिकार ने इस प्रकार की है'पुणो पुणो लप्पमाणो लालप्पमाणो, जं भणितं सुहं पत्थेमाणो ॥' गति के अर्थ में वय शब्द का प्रयोग ऐतरेय ब्राह्मण में भी मिलता है"वयः सुवर्णा उपसेदुरिन्द्र मित्युत्तमया परिदधाति।" सायणाचार्य ने अपने भाष्य में वय का अर्थ गति किया हैवेतेर्धातोगत्यर्थस्य वय इति रूपम् । (-ऐतरेय ब्राह्मण, अध्याय १२, खण्ड ८) Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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