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लोक-विजय
१२७. पुरुष मरणधर्मा मनुष्य के [ शरीर की संधि को जानकर [ कामासक्ति से मुक्त हो ] । २०
१२८. वही वीर प्रशंसित होता है, जो [ काम वासना से ] बद्ध को मुक्त करता है ।
१२९. [ यह शरीर ] जैसा भीतर है, वैसा बाहर है; जैसा बाहर है, वैसा भीतर है।
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१३०. पुरुष इस अशुचि शरीर के भीतर से भीतर [ पहुंच कर शरीर धातुओं को ] देखता है और झरते हुए विविध स्रोतों (अन्तरों) को भी देखता है ।
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१३१. पंडित पुरुष [ काम के विपाक और शरीर की अशुचिता को ] देखें ।
१३२. वह मतिमान् पुरुष [ काम और शरीर के यथार्थ स्वरूप को ] जानकर और त्याग कर लार को न चाटेवान्त भोग का सेवन न करे ।
१३३. वह अपने-आप को काम-भोगों के मध्य में न फंसाए ।
१३४ [ कामासक्त ] पुरुष 'यह मैंने किया और यह मैं करूंगा' - [ इस स्मृति और कल्पना की उधेड़बुन में रहता है ] । वह बहुतों को ठगता है। वह अपने ही कृत कार्यों से मूढ़ होकर [ काम सामग्री पाने को ] पुनः ललचाता है
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१३५. [ वह माया और लोभ का आचरण कर जन-जन के साथ ] अपना वैर बढ़ाता है।+
१३६. यह जो मैं कहता हूं [ कि कामी मनुष्य माया का आचरण करता है और बैर-विरोध बढ़ाता है, वह ] इस [ शरीर ] की पुष्टि के लिए ही [ ऐसा करता है ] ।
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१३७. [ काम और उसके साधनभूत अर्थ में ] जिसकी महान् श्रद्धा होती है, वह अमर की भांति आचरण करता है । ५
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मिलाइए - सूयगडो, ११६१२,३ ।
x सूयगढो १।१०।१5 में अमर के स्थान में अजरामर का प्रयोग मिलता है ।
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