________________ लोक-विजय 96. [अप्रमाद] शांति है और [प्रमाद] मृत्यु है-यह देखने वाला [प्रमाद कैसे कर सकता है ?] [शरीर] क्षणभंगुर है-यह देखने वाला [प्रमाद कैसे कर सकता है ?] 97. तू देख ! [ये भोग अतृप्ति की आग बुझाने में] समर्थ नहीं हैं / 68. फिर इन [अतृप्ति की आग को भड़काने वाले भोगों] से तुझे क्या लाभ ? 99. मुने ! तू देख ! यह (भोग) महा भयंकर है। 100. पुरुष किसी के प्राणों का अतिपात न करे।" 101. वह वीर प्रशंसनीय होता है, जो संयम-जीवन से खिन्न नहीं होता। 102. यह मुझे [भिक्षा] नहीं देता [-यह सोचकर] उस पर क्रोध न करे। थोड़ा प्राप्त होने पर निन्दा न करे / [गृहस्वामी] प्रतिषेध करे, तो उसी क्षण वहां से चला जाए। 103. मुनि इस ज्ञान का सम्यक् अनुपालन करे। -ऐसा मैं कहता हूं। पंचम उद्देशक आहार की अनासक्ति 104. असंयमी पुरुष अपने शरीर, पुत्र, पुनी, वधू, ज्ञाति, धाय, राजा, दास, दासी, नोकर, नौकरानी पाहुने, विविध उपहार, सायंकालीन भोजन और प्रात:कालीन भोजन के लिए नाना प्रकार के शस्त्रों से कर्म-समारंभ करते x मुनि का वर्ष शानी होता है। इसलिए मौन का महान है। ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use only www.jainelibrary.org