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लोक-विजय
८३. वह भोग के बाद बची हुई प्रचुर अर्थ-राशि से महान् उपकरण वाला हो
जाता है।
८४. एक समय ऐसा आता है कि उस (अजित और संरक्षित अर्थ-राशि या
उपकरण-राशि) से दायाद हिस्सा बंटा लेते हैं, या चोर उसका अपहरण कर लेते हैं, या राजा उसे छीन लेते हैं, या वह नष्ट-विनष्ट हो जाती है या गृहदाह के साथ जल जाती है।
८५. इस प्रकार अज्ञानी पुरुष दूसरे (दायाद आदि) के लिए क्रूर कर्म करता हुआ
[दुःख का निर्माण करता है।] वह उस दुःख से मूढ़ होकर विपर्यास को प्राप्त होता है-सुख का अर्थी होकर दुःख को प्राप्त होता है।
८६. हे धीर! तू आशा और स्वच्छंदता को छोड़।
८७. उस (आशा और स्वच्छंदता के) शल्य का सृजन तू ने ही किया है।
८८. जिससे [सुख] होता है, उससे नहीं भी होता।
८९. मोह से अतिशय आवृत मनुष्य इसे (पौद्गलिक सुख की अनेकान्तिकता को)
भी नहीं समझ पाते।
९०. यह लोक स्त्रियों के द्वारा पराजित है।
९१. हे पुरुष ! वे (स्त्रियों से पराजित लोग कहते हैं-) 'ये स्त्रियां आयतन
(भोग-सामग्री) हैं।'
९२. [भोग की अधीनता] उसके दुःख, मोह, मृत्यु, नरक और नरकानन्तर तिर्यंच
गति के लिए होती है।
९३. सतत मूढ़ मनुष्य धर्म को नहीं जान पाता।
९४. महावीर ने कहा- [साधक] अब्रह्मचर्य में प्रमत्त न हो।
९५. कुशल कोप्रमाद से क्या प्रयोजन ?
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