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लोक-विजय
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३८. [हिताहित की समीक्षा करने वाला [विषयों की आकांक्षा नहीं करता।
३९. वह (विषयों के प्रति निःस्पृह रहने वाला) अनगार कहलाता है !
दण्ड-प्रयोग
४०. वह रात-दिन परितप्त रहता है, काल या अकाल में [अर्थार्जन का] प्रयत्न
करता है, संयोग का अर्थी होकर अर्थ-लोलुप [और अर्थ-लोलुप होकर] चोर या लुटेरा हो जाता है। उसका चित्त [अर्थार्जन में ही लगा रहता है। [अर्थार्जन में संलग्न पुरुष] पुनः-पुनः शस्त्र (संहारक) बनता है।
४१. वह शरीर-बल, ज्ञाति-बल, मित्र-बल, पारलौकिक बल, देव-बल, राज-बल,
चोर-बल, अतिथि-बल, कृपण-बल और श्रमण-बल का [संग्रह करता है।'
४२. इन नानाविध कार्यों [की सम्पूर्ति] के लिए वह दंड (हिंसा) का प्रयोग
करता है।
४३. कोई व्यक्ति अपने चिन्तन से [हिंसा का प्रयोग करता है] और कोई भय
से [करता है।
४४. कोई [यज्ञ, बलि आदि से] पाप की मुक्ति मानता हुआ [हिंसा का प्रयोग
करता है] ।
४५. अथवा कोई [अप्राप्त को पाने की] अभिलाषा से [हिंसा का प्रयोग करता
हिंसा-विवेक ४६. यह जानकर मेधावी पुरुष उक्त प्रयोजनों से स्वयं हिंसा का प्रयोग न करे,
दूसरों से उसका प्रयोग न करवाए और उसका प्रयोग करने वाले का अनुमोदन न करे।
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