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________________ लोक-विजय ७९ ३८. [हिताहित की समीक्षा करने वाला [विषयों की आकांक्षा नहीं करता। ३९. वह (विषयों के प्रति निःस्पृह रहने वाला) अनगार कहलाता है ! दण्ड-प्रयोग ४०. वह रात-दिन परितप्त रहता है, काल या अकाल में [अर्थार्जन का] प्रयत्न करता है, संयोग का अर्थी होकर अर्थ-लोलुप [और अर्थ-लोलुप होकर] चोर या लुटेरा हो जाता है। उसका चित्त [अर्थार्जन में ही लगा रहता है। [अर्थार्जन में संलग्न पुरुष] पुनः-पुनः शस्त्र (संहारक) बनता है। ४१. वह शरीर-बल, ज्ञाति-बल, मित्र-बल, पारलौकिक बल, देव-बल, राज-बल, चोर-बल, अतिथि-बल, कृपण-बल और श्रमण-बल का [संग्रह करता है।' ४२. इन नानाविध कार्यों [की सम्पूर्ति] के लिए वह दंड (हिंसा) का प्रयोग करता है। ४३. कोई व्यक्ति अपने चिन्तन से [हिंसा का प्रयोग करता है] और कोई भय से [करता है। ४४. कोई [यज्ञ, बलि आदि से] पाप की मुक्ति मानता हुआ [हिंसा का प्रयोग करता है] । ४५. अथवा कोई [अप्राप्त को पाने की] अभिलाषा से [हिंसा का प्रयोग करता हिंसा-विवेक ४६. यह जानकर मेधावी पुरुष उक्त प्रयोजनों से स्वयं हिंसा का प्रयोग न करे, दूसरों से उसका प्रयोग न करवाए और उसका प्रयोग करने वाले का अनुमोदन न करे। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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