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लोक-विजय
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द्वितीय उद्देशक
अरति-निवृत्ति २७. जो अरति (चैतसिक उद्वेग) का निवर्तन करता है, वह मेधावी होता है।'
२८. वह क्षण भर में [कामनाओं से मुक्त हो जाता है।
२९. अनाज्ञा में [वर्तमान] कुछ साधु [कामना से] स्पृष्ट होकर वापस घर में
भी चले जाते हैं।
३०. मंदमति [मनुष्य] मोह से अतिशय रूप में आवृत होते हैं ।
३१. कुछ पुरुष 'हम अपरिग्रही होंगे'- [इस संकल्प से] प्रवजित हो जाते हैं;
फिर प्राप्त कामों का आसेवन करते हैं।'
३२. अनाज्ञा में [वर्तमान] मुनि [विषयों की ओर देखते हैं।'
३३. उन्हें विषयों के प्रति मोह हो जाता है और वे पुनः-पुनः उनके दलदल में
निमग्न रहते हैं। [फिर अधिक मोह और अधिक निमज्जन-यह क्रम चलता रहता है।]"
३४. वे न इस तीर पर आ सकते और न उस पार जा सकते।
३५. जो पुरुष [विषय-दलदल के] पारगामी होते हैं; वे विमुक्त हो जाते हैं ।
अनगार ३६. जो पुरुष अलोभ से लोभ को पराजित कर देता है, वह प्राप्त कामों का सेवन
नहीं करता।
३७. जो लोभ को छोड़कर प्रवजित होता है, वह अकर्म (ध्यानस्थ या आवरण
मुक्त) होकर जानता-देखता है।
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