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जयन्ती प्रकरणवृत्तिः । गाथा १४ १५ १६ १७ १८ " तो रायसोम ! संसयकलंकनिम्मुक्कदंसण सिवम्मि । परिमियखेत्ते जीवा अणाइसिद्धा कहं मन्ति ? ॥४०॥ अहवेसभवो होही कयावि किं सव्वभव्वजीवेहिं । अपुणागमसिद्धेहिं रहिओ ? सहिओ अभव्वेहिं ?" ॥४१॥ पसरम्मि व तो पसिणे बप्पइरायस्स निम्मला पत्ता । पसरइ पुन्निमजुण्हा सहोयरा पुन्नवित्तस्स ॥४२॥ ती विहिय कुमुयाकरो व्व समयाणुसारिदिट्ठन्तो । पडिहयमोहवियारो दुरुज्झियऽपरिमलुग्गारो ॥४३॥
तहाहि
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'आसंसारं सरियासहस्सहीरन्तरेणुनिवहेण ।
पुहवी न निट्ठिय च्चिय उयही वि थलीमऽसंजाओ ॥४४॥
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जह तह सिद्धिखित्ते अणाइसिद्धेहि णन्तजीवेहिं । भरिए व मंति णन्ता सिज्झिस्सन्तो न निट्टं ति" ॥४५॥
एवं संभरिवइणा वुत्ते पडिउत्तरम्मि जुत्तम्मि । सूरि वि बप्पट्टी गुणणिहट्टी भइ हिट्ठो || ४६ ॥ धन्नो सि तुमं सुन्दर ! राओ च्चिय विहियसिवपट्टो | पडिपुन्नकलामंडलवित्तो जं तं महच्छरियं ॥४७॥ तं होसु सुयण ! सम्पइ दियराओ तारयाण मज्झम्मि । गुरुसंनिहाणजिणवरदिक्खागहणे पवन्नस्मि ॥४८॥ भणिऊणेवं वियरइ विहिणा सिरिबप्पहट्टिसूरिवरो । जिणसासणम्मि दिक्खं गिन्हइ सो सुद्धसद्धा ||४९|| पडिवन्नं पुव्वं चिय सन्नासं उत्तमट्ठकप्पेण । उद्धरियसव्वसल्लो आसहइ मोहपडिमल्लो ॥५०॥ अह तं सग्गसिरी कडक्खनिक्खेवगोयरं नाउं । सद्दहणसिन्धुपूरणमेहं गाहं भइ सूरी ॥ ५१ ॥ " तई सग्गगए सामन्नसीह अवरत्तओ न फिट्टीहिही । पढमं चि वरियपुरंदराए सग्गस्स लच्छीए" ॥५२॥
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