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जयन्ती प्रकरणवृत्तिः । गाथा ४।५।६
सन्तो दन्तो सन्तो मायापित्तेहिं मोहमूढेहिं । विसयाऽऽसत्तिनिमित्तं खित्तो दुल्ललियगोट्ठीए ||६|| अह सा रिद्धसमिद्धा थेरी एगम्मि ओसवदिणम्मि | जेमावइ नयरजणं विच्छृड्डेणं सबहुमाणं ||७|| तो रयणीए तीए गेहे गन्तूण दुल्ललियगोट्ठी । मुसइ धणं पुण एसा पत्तेयं ताण पाए ॥८॥ लछणमुणिज्जन्ती करे सरसेण मोरपिच्छेण । पणमन्ती जम्पन्तीपुत्ता मा मुसह मज्झ घरं ॥९॥ सावयपुत्तो एक्को न लंछिओ जेण जावजीवं पि । चत्तमदत्तादाणं सुहगुरुपयमूलवसिएण ॥१०॥ तो जायम्मि पभाए रायसहाए समेइ सा थेरी । विन्नवइ देव ! मुसियं मह गेहं नयरचोरेहिं ॥ ११ ॥ इह वत्थव्वा वि कहं ? नज्जन्ति इमे अदिट्ठचोरिका । इय जम्पन्तम्मि निवे थेरीए लंछिया कहिया || १२ || तो नीइपहाणेणं आइट्ठो दंडपासिओ रन्ना । उवलक्खिऊण सम्मं तुरियं आणेह चोरि त्ति ||१३|| आरक्खिण तत्तो पलोयमाणेण नयरमज्झम्मि । सच्छन्दं विलसन्ती सा दिट्ठा दुल्ललियगोट्ठी ॥ १४ ॥ तो मोरपिच्छलंछण-दिट्ठीए लक्खिया इमे चोरा । संगहिऊणं सिग्घं आणीया रायपासम्म ॥ १५ ॥ विलसियसेसं दव्वं थेरीए अप्पियं नरिन्देण । ते दुल्ललिया चोरा निग्गहिया पाणहरणेण ॥ १६॥ जो पुण सावयपुत्तो अदत्तदाणस्स पावद्वाणस्स । आजम्मगिहियनियमो स होइ द्वाणं सिवसुहाणं ||१७|| अदत्तादानकथानकं तृतीयं समाप्तम् ॥
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