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| तीर्थंकर थे और उनके प्रथम शिष्य श्री गौतमस्वामी थे । इन दोनों का गुरु | शिष्य के रूप में संबंध प्रसिद्ध है । यद्यपि उनका मूल नाम इन्द्रभूति था और गौतम उनका गोत्र था तथापि जैसे वर्तमान में बड़े लोग अल्ल उपगोत्र | (surname) से पहचाने जाते है वैसे प्राचीन काल में ऋषि-मुनि गोत्र के नाम से पहचाने जाते थे । अतः जैन परंपरा में वे गणधर श्री गौतमस्वामीजी | के नाम से पहचाने जाते थे और वर्तमान में भी इसी नाम से ही उनकी आराधना की जाती है । जैन धर्मग्रंथ कल्पसूत्र के अनुसार जब भगवान | महावीरस्वामी की उम्र 42 साल थी और गौतमस्वामी की उम्र 50 साल थी तब दोनों का मिलाप हुआ था । उससे पूर्व श्री गौतमस्वामीजी 14 विद्या के पारगामी विद्वान ब्राह्मण पंडित थे और वे यज्ञ-याग कराते थे । उनके पास 500 ब्राह्मण शिष्यों का परिवार था । जब तक इन्द्रभूति गौतम ने भगवान | महावीरस्वामी के दर्शन नहीं किये थे और उनके आध्यात्मिक विद्युद् चुंबकीय क्षेत्र में प्रवेश नहीं किया था तब तक वे भगवान महावीर को भी वाद-विवाद में परास्त करके अपनी विजय पताका समग्र विश्व में फैलाने की ख्वाहिश रखते थे । किन्तु जहाँ भगवान महावीरस्वामी बिराजमान थे उसी समवसरण के पास आते ही एवं दर्शन होते ही भगवान महावीर को जीतने के उनके अरमान चूरचूर हो गये और स्वयं भगवान महावीर के ध्यान में खो गये और इस प्रकार " ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः " पद यथार्थ हो पाया ।
कहा जाता है कि जब तीर्थकर परमात्मा धर्मोपदेश देते हैं तब बारह बारह योजन दूर से मनुष्य व पशु-पक्षी उनका धर्मोपदेश सुनने को आते हैं अर्थात् उनका विद्युद् चुंबकीय क्षेत्र बारह योजन तक फैला हुआ होता है
वर्तमानयुग में शारीरिक रोग को दूर करने के लिये जैसे एक्यूपंक्चर, एक्युप्रेशर, रंगचिकित्सा पद्धति का उपयोग होता है वैसे ही चुंबकीय पद्धति का भी उपयोग होता है । यही बात त्रिलोकगुरु भगवान महावीरस्वामी की | केवली अवस्था के वर्णन से फलित होती है । उनका जैविक विद्युद् चुंबकीय क्षेत्र इतना शक्ति संपन्न था कि वे जहाँ जहाँ विहार करते वहाँ वहाँ उसी क्षेत्र | में विहार के दौरान सभी लोगों के रोग इत्यादि दूर हो जाते थे और विहार | के बाद भी छः माह तक कोई रोग नहीं होते थे । किसीको आपस में वैरभाव भी नहीं रहता था और उनके प्रभाव से अतिवृष्टि या अनावृष्टि भी नहीं होती थी । मानों उन्होंने इन सब ऊपर हिप्नोटिजम - मेस्मेरिझम किया
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