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भगवान महावीर : त्रिलोकगुरु
ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः, पूजामूलं गुरो: पदौ । मन्त्रमूल गुरोर्वाक्य, मोक्षमूल गुरोः कृपा ।। गुरु की प्रतिमा या आकृति अर्थात् देह ध्यान का आलंबन है । गुरु चरणकमल अर्थात् पैर पूजा का आलंबन है । गुरु का वाक्य या आदेश शब्द मंत्र का मूल है या श्रेष्ठ मंत्र है और इन तीनों (ध्यान, पूजा व मंत्र से प्राप्त गुरुकृपा आशीर्वाद मोक्ष का परम कारण है ।
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भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में गुरु का जितना माहात्म्य है इतन माहात्म्य शायद किसी भी पाश्चात्य परंपरा में आजतक विदित नहीं हुआ | भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में मुख्य तीन तत्त्व हैं । देव, गुरु व धर्म देव और गुरु एक जीवित व्यक्ति स्वरूप है । जबकि धर्म एक गुण स्वरूप भावात्मक है । देव और गुरु में मूलतः यही अंतर है कि देव शुरु में गु स्वरूप ही होते हैं । बाद में वे देव / देवाधिदेव परमात्म स्वरूप प्राप्त कर हैं । यही परमात्म स्वरूप अपना परमध्येय होता है । उनकी और धर्म भावात्मक स्वरूप की पहचान हमें गुरु ही कराते हैं । अतएव गुरु माहात्म्य बताते हुए कबीरजी ने कहा है कि -
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गुरु गोविंद दोनों खडे किनको लागू पाय । बलिहारी गुरु आपकी गोविंद दीयो बताय ।।
गुरु ने अभी पूर्ण रूप से परमात्म स्वरूप प्राप्त नहीं किया है कि परमात्म स्वरूप की प्राप्ति के सही मार्ग पर उन्होंने प्रस्थान कर दिया है। उसी सही मार्ग की पहचान व अनुभवज्ञान प्रत्येक साधक के लिये मार्गदर्श हो पाता है और उसी मार्गदर्शक के बिना परमपद की प्राप्ति आत्मसाक्षात्कार का अनुभव प्राप्त होने की कोई संभावना नहीं है । अत भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में गुरु की अत्यावश्यकता महसूस की गई है। उनके बारे में एक जगह कहा है कि
गुरु दीवो, गुरु देवता, गुरु विण घोर अंधार | जे गुरुओथी वेगला रडवड्या संसार ||
हमारे प्राचीन ऋषि-मुनिओं ने गुरु का इतना माहात्म्य निष्कारण
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