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________________ | टकराकर शब्द में परिणत होकर उसमें ही संमिलित हो जाते हैं तब उसी शब्द को अन्तरजात शब्द कहा जाता है । 4. ग्रहणजात : बाद में जिन-जिन भाषा वर्गणा के परमाणुसमूह भाषा ( शब्द) में परिणत हुये हैं चाहे वे समश्रेणिगत भाषा वर्गणा के परमाणुसमूह हों या विश्रेणिगत भाषा वर्गणा के परमाणुसमूह हों, उसमें से कुछेक | परमाणुसमूह अपने कान के छिद्र में प्रवेश करते हैं जिनकी असर मस्तिष्क के श्रुति केन्द्र पर होती है, उसे ग्रहणजात शब्द कहा जाता है । ये परमाणुसमूह द्रव्य से अनंत प्रदेशात्मक अर्थात् अनंत परमाणु से युक्त होते हैं । क्षेत्र से असंख्यात प्रदेशात्मक अर्थात् असंख्यात आकाश प्रदेश में रहने वाले होते हैं । काल से असंख्यात समय की स्थिति वाले होते हैं और भाव से भिन्न भिन्न प्रकार के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से युक्त होते हैं । इसके अलावा बिना ग्रहण किये गये भाषा रूप में परिणत परमाणुसमूह पुनः विसर्जित होकर भाषा वर्गणा के मूल परमाणुसमूह में या अन्य प्रकार के परमाणुसमूह में रूपांतरित हो जाते हैं । ध्वनि की शक्ति का आधार आधुनिक विज्ञान के अनुसार उनकी कंपसंख्या - आवृत्ति पर है । यदि कंपसंख्या ज्यादा हो तो उसमें ज्यादा शक्ति होती है । यदि ध्वनि की शक्ति का संगीत के रूप में व्यवस्थित उपयोग किया जाय तो वह बहुत उपकारक सिद्ध हो सकती है । पुद्गल परमाणु में अचिन्त्य शक्ति है ऐसा स्वीकार तो आधुनिक विज्ञान भी करता है । अंग्रेजी दैनिक द टाइम्स ऑफ इन्डिया के 3 सप्टे, 1995, रविवार की पूर्ति में संगीत के बारे में एक आलेख आया था । उसमें स्पष्ट रूप से बताया गया है कि वातावरण / हवा संगीत के सुरों से शक्तिशाली बनता है । (Air is charged with musical ions) हालाँकि उसी लेख में लेखक महोदय ने पाश्चात्य संगीत के पोप संगीत या डिस्को संगीत का वर्णन किया है। तथापि उसमें बताया है कि उसी संगीत के दौरान किसी को वातावरण में | भिन्न-भिन्न प्रकार के रंगीन आकार नृत्य करते हुए दिखाई पड़ते थे । अर्थात् उन लोगों को ध्वनि के वर्ण का साक्षात्कार हुआ था । संगीत की तरह मंत्र विज्ञान में भी ध्वनि का विशिष्ट प्रयोग होता है । मंत्र अर्थात् किसी निश्चित कार्य के लिये किसी देव या देवी से अधिष्ठित किसी महापुरुष द्वारा विशिष्ट शब्दों या अक्षरों के संयोजन द्वारा Jain Education International 40 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002549
Book TitleJain Dharma Vigyana ki Kasoti par ya Vigyana Jain Dharma ki Kasoti par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandighoshvijay
PublisherBharatiya Prachin Sahitya Vaigyanik Rahasya Shodh Sanstha
Publication Year2005
Total Pages108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Science
File Size6 MB
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