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तीर्थंकर परमात्मा के सुवर्णकमल विहार का रहस्य
केवलज्ञानी तीर्थकर परमात्मा पृथ्वी पर कदम रखने के बजाय देवकृत सुवर्ण कमल पर ही कदम स्थापन करने का क्या कारण है ? इसके बारे में कुछ लोग कहते हैं कि तीर्थकर परमात्मा तो संसारत्यागी हैं, वे तो कंचन-कामिनी के त्यागी हैं, अपरिग्रही हैं, अतः उनको बैठने के लिये सुवर्ण के सिंहासन व विहार करने के लिये सुवर्ण कमल की रचना क्यों ?
इसके बारे में कोई स्पष्ट कारण व उत्तर जैन धर्म ग्रंथों में प्राप्त नहीं है । किन्तु कुछ आधुनिक चिंतक विद्वान व जैन मुनि इस प्रश्न के उत्तर में ऐसा कहते हैं कि तीर्थंकर परमात्मा को केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद उनके शरीर में से निरंतर विपुल मात्रा में ऊर्जा उत्सर्जित होती रहती है । इस ऊर्जा को धारण करने की क्षमता पृथ्वी में नहीं है । केवल सुवर्ण ही | ऐसा पदार्थ है कि जो इस ऊर्जा को धारण कर सकता है । अतएव प्रभु को केवलज्ञान की प्राप्ति होने के बाद तुरंत देव सुवर्ण कमल की रचना करते हैं
और प्रभु उन पर कदम स्थापन करके विहार करते हैं या उस पर बिराजमान होते हैं या समवसरण में सुवर्ण के सिंहासन पर विराजमान होकर उपदेश देते हैं और उस समय भी प्रभु के चरण तो सुवर्ण कमल पर ही स्थापित होते हैं । ___ इस उत्तर के प्रतिप्रश्न के रूप में हमारे परम पूज्य गुरुदेव आचार्य श्री विजय सूर्योदयसूरिजी महाराज कहते हैं कि यह बात उचित नहीं है और इस बात को शास्त्र का कोई आधार भी नहीं है और सुवर्ण भी पृथ्वी में उत्पन्न होता है अतः वह भी पृथ्वीकाय ही है | यदि पृथ्वी में केवलज्ञानी तीर्थंकर परमात्मा की ऊर्जा के विपुल प्रमाण को झेलने की क्षमता नहीं है तो सुवर्ण में वह क्षमता कैसे आ सकती है ? अर्थात् नहीं आ सकती । अतः यही सुवर्ण कमल की रचना का रहस्य कुछ ओर ही है । - इसके बारे में वैज्ञानिक सिद्धांत के आधार पर विचार करने पर इस प्रश्न | का उत्तर इस प्रकार दिया जाय । वर्तमान में विज्ञान में यह सिद्ध हो चुका है कि प्रत्येक सजीव पदार्थ में से एक प्रकार की शक्ति ऊर्जा निरंतर उत्सर्जित होती रहती है इस शक्ति को विज्ञानी जैविक विद्युचुंबकीय शक्ति
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