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(२१९) श्रावलियदुसम ऊणा-मेत्तं फहूं तु पढमठिइविरमे । वेयाण वि बे फड्डा ठिई दुर्ग जेण तिण्हं पि ॥१८॥ पढ मठिईचरमुदये, बिइयठिईए व चरमसंछोमे। दो फड्डा वेयाणं, दो इगि संतंहवा एए ॥१८४|| चरमसंछोभसमए, एगाठिई होइ स्थीनपुंसाणं। पढमठिईए तदंते, पुरिसे दोश्रालिदुसमूणं ॥१८५॥
॥ इति श्रीपञ्चमं बन्धविधिद्वारम् ॥
॥ अथ कर्मप्रकृतिसंग्रहः ॥ बंधनकरणम् ॥ मिऊण सुयहराणं वोच्छं करणाणि बंधणाईणि । संकमकरणं बहुसो अइदिसियं उदयसंते जं ॥१॥ आवरणदेससव्वक्खएण दुविहेहवीरियं होइ। अहिसंधिअणहिसंधी अकसाइ सलेसउभयपि ॥२॥ होइ कसाइ वि पढम इयरमलेसी विजंसलेसं तु। गहणपरिणामफंदणरूवं तं जोगयो तिविहं ॥३॥ जोगो विरियं थामो उच्छाह परक्कमो तहा चेट्ठा। सत्ती सामत्थं ति य जोगस्स हवंति पजाया ॥४॥
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