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ज्ञानबिन्दुपरिचय - ग्रन्थकार का तात्पर्य तथा उन की स्वोपज्ञ विचारणा
५ - जिस जैन शास्त्र ने अनेकान्त के बल से सत्त्व और असत्त्व जैसे परस्पर विरुद्ध धर्मों का समन्वय किया है और जिस ने विशेष्य को कभी विशेषण और विशेषण को कभी विशेष्य मानने का कामचार स्वीकार किया है, वह जैन शास्त्र ज्ञान के बारे में प्रचलित तीनों पक्षों की गौण - प्रधान-भाव से व्यवस्था करे तो वह संगत ही है ।
६ - स्वसमय में भी जो अनेकान्त ज्ञान है वह प्रमाण और नय उभय द्वारा सिद्ध है । अनेकान्त में उस उस नय का अपने अपने विषय में आग्रह अवश्य रहता है पर दूसरे नय के विषय में तटस्था भी रहती ही है । यही अनेकान्त की खूबी है । ऐसा अनेकान्त कभी सुगुरुओं की परंपरा को मिथ्या नहीं ठहराता । विशाल बुद्धिवाले विद्वान् सद्दर्शन उसी को कहते हैं जिस में सामञ्जस्य को स्थान हो ।
७- खल पुरुष हतबुद्धि होने के कारण नयों का रहस्य तो कुछ भी नहीं जानते परंतु उल्टा वे विद्वानों के विभिन्न पक्षों में विरोध बतलाते हैं । ये खल सचमुच चन्द्र और सूर्य तथा प्रकृति और विकृति का व्यत्यय करने वाले हैं । अर्थात् वे रात को दिन तथा दिन को रात एवं कारण को कार्य तथा कार्य को कारण कहने में भी नहीं हिचकिचाते । दुःख की बात है कि वे खल कहीं भी गुण को खोज नहीं सकते ।
८ - प्रस्तुत ज्ञानबिन्दु ग्रन्थ के असाधारण स्वाद के सामने कल्पवृक्ष का फलस्वाद क्या चीज है । तथा इस ज्ञानबिन्दु के आस्वाद के सामने द्राक्षास्वाद, अमृतवर्षा और स्त्रीसंपत्ति आदि के आनंद की रमणीयता भी क्या चीज है ? |
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