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________________ ज्ञानबिन्दुपरिचय-केवलज्ञान-दर्शनोपयोग के भेदाभेद की चर्चा पूर्वपक्ष रूप से उल्लेख करते समय 'केचित् इतना ही कहा है। किसी विशेष नामका निर्देश नहीं किया है । युगपत् और अभेद वाद को रखते समय तो उन्हों ने 'केचित्' 'अन्ये' जैसे शब्द का प्रयोग भी नहीं किया है। पर हम जब विक्रमीय ग्यारहवीं सदी के आचार्य अभयदेव की 'सन्मतिटीका' को देखते हैं तब तीनों वादों के पुरस्कर्ताओं के नाम उसमें स्पष्ट पाते हैं [पृ० ६०८ ] अभयदेव हरिभद्र की तरह क्रम वादका पुरस्कर्ता तो जिनभद्र क्षमाश्रमण को ही बतलाते हैं पर आगे उन का कथन हरिभद्र के कथन से जुदा पडता है । हरिभद्र जब युगपद् वाद के पुरस्कर्ता रूप से आचार्य सिद्धसेन का नाम सूचित करते हैं तब अभयदेव उस के पुरस्कर्ता रूप से आचार्य मल्लवादी का नाम सूचित करते हैं । हरिभद्र जब अभेद वाद के पुरस्कर्ता रूप से वृद्धाचार्य का नाम सूचित करत हैं तब अभयदेव उस के पुरस्कर्ता रूप से आचार्य सिद्धसेन का नाम सूचित करते हैं । इस तरह दोनों के कथन में जो भेद या विरोध है उस पर विचार करना आवश्यक है। __ ऊपर के वर्णन से यह तो पाठकगण भली भाँति जान सके होंगे कि हरिभद्र तथा अभयदेव के कथन में क्रम वाद के पुरस्कर्ता के नाम के संबंध में कोई मतभेद नहीं । उनका मतभेद युगपद् वाद और अभेद वाद के पुरस्कर्ताओं के नाम के संबंध में है। अब प्रश्न यह है कि हरिभद्र और अभयदेव दोनों के पुरस्कर्ता संबंधी नामसूचक कथन का क्या आधार है ? । जहाँ तक हम जान सके हैं वहाँ तक कह सकते हैं कि उक्त दोनों सरि के सामने क्रम वाद का समर्थक और यगपत तथा अभेद वाद का प्रतिवादक साहित्य एकमात्र जिनभद्र का ही था, जिस से वे दोनों आचार्य इस बात में एकमत हुए, कि क्रम वाद श्रीजिनभद्र गणि क्षमाश्रमण का है। परंतु आचार्य हरिभद्र का उल्लेख अगर सब अंशों में अभ्रान्त है तो यह मानना पड़ता है कि उन के सामने युगपद् वाद का समर्थक कोई स्वतंत्र ग्रन्थ रहा होगा जो सिद्धसेन दिवाकर से भिन्न किसी अन्य सिद्धसेन का बनाया होगा । तथा उन के सामने अभेद वाद का समर्थक ऐसा भी कोई ग्रन्थ रहा होगा जो सन्मतितर्क से भिन्न होगा और जो वृद्धाचार्यरचित माना जाता होगा। अगर ऐसे कोई ग्रन्थ उन के सामने न भी रहे हों तथापि कम से कम उन्हें ऐसी कोई सांप्रदायिक जनश्रुति या कोई ऐसा उल्लेख मिला होगा जिस में कि आचार्य सिद्धसेन को युगपद् वाद का तथा वृद्धाचार्य को अभेद वाद का पुरस्कर्ता माना गया हो। जो कुछ हो पर हम सहसा यह नहीं कह सकते कि हरिभद्र जैसा बहुश्रुत आचार्य यों ही कुछ आधार के सिवाय युगपद् वाद तथा अभेद वाद के पुरस्कर्ताओं के विशेष नाम का उल्लेख कर दें । समान नामवाले अनेक आचार्य होते आए हैं । इस लिए असंभव नहीं कि सिद्धसेन दिवाकर से भिन्न कोई दूसरे भी सिद्धसेन हुए हों जो कि युगपद् वाद के समर्थक हुए हों या माने जाते हों। यद्यपि सन्मतितर्क में सिद्धसेन दिवाकर ने अभेद पक्ष का ही स्थापन किया है अत एव इस विषय में सन्मतितर्क के आधार पर हम कह सकते हैं कि अभयदेव सूरि का अभेद वाद के पुरस्कर्ता रूप से सिद्धसेन दिवाकर के नाम का कथन बिलकुल सही है और हरिभद्र का कथन विचारणीय है। पर हम ऊपर कह आए हैं कि क्रम आदि तीनों वादों की चर्चा बहुत पहले से शुरु हुई और शताब्दियों तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002518
Book TitleGyanbindu Prakarana
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1942
Total Pages244
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size13 MB
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