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- ज्ञानबिन्दुपरिचय- ब्रह्मज्ञान का निरास मतभेद अवश्य है- फिर भी उपाध्याय जी ने प्रस्तुत ग्रन्थ में नैरात्म्यभावना और ब्रह्मभावना के ऊपर ही खास तौर से प्रहार करना चाहा है । इस का सबब यह है कि सांख्य-योगादिसंमत विवेकभावना जैनसंमत विवेकभावना से उतनी दूर या विरुद्ध नहीं जितनी कि नैरात्म्यभावना और ब्रह्मभावना है । नैरात्म्यभावना के खण्डन में उपाध्यायजी ने खास कर बौद्धसंमत क्षणभंग वाद का ही खण्डन किया है । उस खण्डनमें उनकी मुख्य दलील यह रही है कि एकान्त क्षणिकत्व वाद के साथ बन्ध और मोक्षकी विचारसरणि मेल नहीं खाती है । यद्यपि उपाध्यायजी ने जैसा नैरात्म्यभावना का नामोल्लेख पूर्वक खण्डन किया है वैसा ब्रह्मभावना का नामोल्लेख पूर्वक खण्डन नहीं किया है, फिर भी उन्हों ने आगे जाकर अति विस्तार से वेदान्तसंमत सारी प्रक्रिया का जो खण्डन किया है उस में ब्रह्मभावना का निरास अपने आप ही समा जाता है।
(६) ब्रह्मज्ञान का निरास [६७३ ] क्षणभंग वाद का निरास करने के बाद उपाध्यायजी अद्वैतवादिसंमत ब्रह्मज्ञान, जो जैनदर्शनसंमत केवलज्ञान स्थानीय है, उस का खण्डन शुरू करते हैं । मुख्यतया मधुसूदन सरस्वती के ग्रन्थों को ही सामने रख कर उन में प्रतिपादित ब्रह्मज्ञान की प्रक्रिया का निरास करते हैं । मधुसूदन सरस्वती शाङ्कर वेदान्त के असाधारण नव्य विद्वान् हैं, जो ईसा की सोलहवीं शताब्दी में हुए हैं । अद्वैतसिद्धि, सिद्धान्तबिन्दु, वेदान्तकल्पलतिका आदि अनेक गंभीर और विद्वन्मान्य ग्रन्थ उन के बनाए हुए हैं । उन में से मुख्यतया वेदान्तकल्पलतिका का उपयोग प्रस्तुत ग्रन्थ में उपाध्यायजी ने किया है। मधुसूदन सरस्वती ने वेदान्तकल्पलतिका में जिस विस्तार से और जिस परिभाषामें ब्रह्मज्ञान का वर्णन किया है उपाध्यायजी ने भी ठीक उसी विस्तार से उसी परिभाषा में प्रस्तुत ज्ञानबिन्दु में खण्डन किया है । शाङ्करसंमत अद्वैत ब्रह्मज्ञानप्रक्रिया का विरोध सभी द्वैतवादी दर्शन एक सा करते हैं । उपाध्यायजी ने भी वैसा ही विरोध किया है पर पर्यवसान में थोड़ा सा अन्तर है । वह यह कि जब दूसरे द्वैतवादी अद्वैतदर्शन के खण्डन के बाद अपना अपना अभिमत द्वैत स्थापन करते हैं, तब उपाध्यायजी ब्रह्मज्ञान के खण्डन के द्वारा जैनदर्शनसंमत द्वैतप्रक्रिया का ही स्पष्टतया स्थापन करते हैं । अत एव यह तो कह ने की जरूरत ही नहीं कि उपाध्यायजी की खण्डन युक्तियाँ प्रायः वे ही हैं जो अन्य द्वैतवादियों की होती हैं।
प्रस्तुत खण्डन में उपाध्यायजी ने मुख्यतया चार मुद्दों पर आपत्ति उठाई है। (१)[७३ ] अखण्ड ब्रह्म का अस्तित्व । (२) [$ ८४ ] ब्रह्माकार और ब्रह्मविषयक निर्विकल्पक वृत्ति । (३) [६९४ ] ऐसी वृत्ति का शब्दमात्रजन्यत्व । (४) [६७९] ब्रह्मज्ञान से अज्ञानादि की निवृत्ति । इन चारों मुद्दों पर तरह तरह से आपत्ति उठा कर अन्तमें यही बतलाया है कि अद्वैतसंमत ब्रह्मज्ञान तथा उस के
१देखो, टिप्पण पृ० १०९. पं. ६ तथा पृ० १११.पं. ३० ।
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