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________________ ज्ञानबिन्दुपरिचय-रागादि दोषों का विचार सार्वज्य की उत्पत्ति का क्रम सब दर्शनों का समान ही है । परिभाषा भेद भी नहीं-सा है । इस बात की प्रतीति नीचे की गई तुलना से हो जायगी। १ जैन २ बौद्ध ३ सांख्य-योग ४ न्याय-वैशेषिक ५ वेदान्त १ सम्यग्दर्शन सम्यग्दृष्टि विवेकख्याति सम्यग्ज्ञान १ सम्यग्दर्शन २ क्षपकश्रेणीका- २ रागादि केशों २ प्रसंख्यान- २ रागादिहास का २ रागादिहास का रागादि के ह्रास के ह्रास का संप्रज्ञात समाधि प्रारंभ प्रारंभ का-प्रारंभ प्रारंभ का प्रारंभ ३ शुक्लध्यान के बल ३ भावना के बल ३ असंप्रज्ञात- ३ असंप्रज्ञात-धर्म- ३ भावना-निदि से मोहनीय का- से क्लेशावरण का धर्ममेघ समाधि मेघ समाधि ध्यासन के बल रागादिदोष का आत्यन्तिक क्षय द्वारा रागादि द्वारा रागादि से क्लेशों का क्षय आत्यन्तिक क्षय क्लेशकर्म की केशकर्म की आत्यन्तिक निवृत्ति आत्यन्तिक निवृत्ति ४ ज्ञानावरण के भावनाके प्रकर्ष ४ प्रकाशावरण के ४ समाधिजन्य ४ ब्रह्मसाक्षात्कार सर्वथा नाश से ज्ञेयावरण के नाश द्वारा धर्म द्वारा सार्वय के द्वारा अज्ञाद्वारा सर्वज्ञत्व सर्वथा नाश के सार्वश्य नादि का विलय द्वारा सर्वज्ञत्व (४) रागादि दोषों का विचार [६६५] सर्वज्ञ ज्ञान की उत्पत्ति के क्रम के संबंध में जो तुलना ऊपर की गई है उस से स्पष्ट है कि राग, द्वेष आदि क्लेशों को ही सब दार्शनिक केवल ज्ञान का आवारक मानते हैं। सब के मत से केवल ज्ञान की उत्पत्ति तभी संभव है जब कि उक्त दोषों का सर्वथा नाश हो । इस तरह उपाध्यायजी ने रागादि दोषों में सर्वसंमत केवल-ज्ञानावारकत्व का समर्थन किया है, और पीछे उन्हों ने रागादि दोषों को कर्मजन्य स्थापित किया है । राग, द्वेष आदि जो चित्तगत या आत्मगत दोष हैं उन का मुख्य कारण कर्म अर्थात् जन्म-जन्मान्तर में संचित आत्मगत दोष ही हैं। ऐसा स्थापन करने में उपाध्यायजी का तात्पर्य पुनर्जन्मवाद का स्वीकार करना है । उपाध्यायजी आस्तिकदर्शनसंमत पुनर्जन्मवाद की प्रक्रिया का आश्रय ले कर ही केवल ज्ञान की प्रक्रिया का विचार करते हैं । अत एव इस प्रसंग में उन्हों ने रागादि दोषों को कर्मजन्य या पुनर्जन्ममूलक न मानने वाले मतों की समीक्षा भी की है। ऐसे मत तीन हैं । जिन में से एक मत [६६६] यह है, कि राग कफजन्य है, द्वेष पित्तजन्य है और मोह वातजन्य है । दूसरा मत [६६७] यह है, कि राग शुक्रोपचयजन्य है इत्यादि । तीसरा मत [६६८] यह है, कि शरीर में पृथ्वी और जल तत्त्व की वृद्धि से राग पैदा होता है, तेजो और वायु की वृद्धि से द्वेष पैदा होता है, जल और वायु की वृद्धि से मोह पैदा होता है । इन तीनों मतों में राग, द्वेष और मोह का कारण मनोगत या आत्मगत कर्म न मान कर शरीरगत वैषम्य ही माना गया है । यद्यपि उक्त तीनों मतों के अनुसार राग, द्वेष और मोह के कारण भिन्न भिन्न हैं। फिर भी उन तीनों मत की मूल दृष्टि एक ही है और वह यह है कि पुनर्जन्म या पुनर्जन्मसंबद्ध कर्म मान कर राग, द्वेष आदि दोषों की उपपत्ति घटाने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002518
Book TitleGyanbindu Prakarana
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1942
Total Pages244
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size13 MB
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