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ज्ञानबिन्दुपरिचय-अहिंसा का स्वरूप और विकास
३३ अहिंसा संबन्धी ऊहापोह में खासा हिस्सा है जिस का कुछ नमूना आगे के टिप्पणों में दिए हुए जैन और बौद्ध अवतरणों से जाना जा सकता है । जब हम दोनों परंपराओं के खण्डन-मण्डन को तटस्थ भावसे देखते हैं तब निःसंकोच कहना पड़ता है कि बहुधा दोनों ने एक दूसरे को गलतरूप से ही समझा है। इस का एक उदाहरण 'मज्झिमनिकाय' का उपालिसुत्त और दूसरा नमूना सूत्रकृताङ्ग (१.१.२.२४-३२,२.६.२६-२८) का है।
जैसे जैसे जैन साधुसंघ का विस्तार होता गया और जुदे जुदे देश तथा काल में नई नई परिस्थिति के कारण नए नए प्रश्न उत्पन्न होते गए वैसे वैसे जैन तत्वचिन्तकों ने अहिंसा की व्याख्या और विश्लेषण में से एक स्पष्ट नया विचार प्रकट किया। वह यह कि अगर अप्रमत्त भाव से कोई जीवविराधना-हिंसा हो जाय या करनी पड़े तो वह मात्र अहिंसाकोटि की अत एव निर्दोष ही नहीं है बल्कि वह गुण (निर्जरा) वर्धक भी है। इस विचार के अनुसार, साधु पूर्ण अहिंसा का स्वीकार कर लेने के बाद भी, अगर संयत जीवन की पुष्टि के निमित्त, विविध प्रकार की हिंसारूप समझी जाने वाली प्रवृत्तियाँ करता है तो वह संयमविकास में एक कदम आगे बढ़ता है। यही जैन परिभाषा के अनुसार निश्चय अहिंसा है । जो त्यागी बिलकुल वस्त्र आदि रखने के विरोधी थे वे मर्यादित रूप में वस्त्र आदि उपकरण (साधन) रखने वाले साधुओं को जब हिंसा के नाम पर कोसने लगे तब वस्त्रादि के समर्थक त्यागियों ने उसी निश्चय सिद्धान्त का आश्रय ले कर जवाब दिया, कि केवल संयम के धारण और निर्वाह के वास्ते ही, शरीर की तरह मर्यादित उपकरण आदि का रखना अहिंसा का बाधक नहीं । जैन साधुसंघ की इस प्रकारकी पारस्परिक आचारभेदमूलक चर्चा के द्वारा भी अहिंसा के ऊहापोह में बहुत कुछ विकास देखा जाता है, जो ओपनियुक्ति आदि में स्पष्ट है । कभी कभी अहिंसा की चर्चा शुष्क तर्ककी-सी हुई जान पड़ती है । एक व्यक्ति प्रश्न करता है, कि अगर वस्त्र रखना ही है तो वह बिना फाड़े अखण्ड ही क्यों न रखा जाय; क्यों कि उस के फाड़ने में जो सूक्ष्म अणु उड़ेंगे वे जीवघातक जरूर होंगे। इस प्रश्न का जवाब भी उसी ढंग से दिया गया है। जवाब देनेवाला कहता है, कि अगर वस्त्र फाड़ने से फैलने वाले सूक्ष्म अणुओं के द्वारा जीवघात होता है; तो तुम जो हमें वस्त्र फाड़ने से रोकने के लिए कुछ कहते हो उस में भी तो जीवघात होता है न ? - इत्यादि । अस्तु । जो कुछ हो, पर हम जिनभद्रगणि की स्पष्ट वाणी में जैनपरंपरासंमत अहिंसा का पूर्ण स्वरूप पाते हैं । वे कहते हैं कि स्थान सजीव हो या निर्जीव, उस में कोई जीव घातक हो जाता हो या कोई अघातक ही देखा जाता हो, पर इतने मात्रसे हिंसा या अहिंसा का निर्णय नहीं हो सकता । हिंसा सचमुच प्रमाद - अयतना-असंयम में ही है फिर चाहे किसी जीवका घात न भी होता हो । इसी तरह अगर अप्रमाद या यतना-संयम सुरक्षित है तो जीवघात दिखाई देने पर भी वस्तुतः अहिंसा ही है।
उपर्युक्त विवेचन से अहिंसा संबंधी जैन ऊहापोह की नीचे लिखी क्रमिक भूमिकाएँ फलित होती हैं।
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