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________________ ज्ञानविन्दुपरिचय - २. विषय विवेचन भी ठीक ठीक हो चुका था और पूर्वकाल में नहीं चर्चित ऐसे अनेक नवीन प्रमेयों की चर्चा भी हो चुकी थी । इस पक्की दार्शनिक भूमिका के ऊपर अगले हजार वर्षों में जैन तार्किकों ने बहुत बड़े बड़े चर्चाजटिल ग्रन्थ रचे जिनका इतिहास यहाँ प्रस्तुत नहीं है । फिर भी प्रस्तुत ज्ञानबिन्दु विषयक उपाध्यायजी का प्रयत्न ठीक ठीक समझा जा सके, पतदर्थ बीच के समय के जैन तार्किकों की प्रवृत्ति की दिशा संक्षेप में जानना जरूरी है । आठवीं-नवीं शताब्दी के बाद ज्ञान के प्रदेश में मुख्यतया दो दिशाओं में प्रयत्न देखा जाता है । एक प्रयत्न ऐसा है जो क्षमाश्रमण जिनभद्र के द्वारा बिकसित भूमिका का आश्रय लेकर चलता है, जो कि आचार्य हरिभद्र की 'धर्मसङ्ग्रहणी' आदि कृतियों में देखा जाता है। दूसरा प्रयत्न अकलंक के द्वारा विकसित भूमिका का अवलम्बन करके शुरू हुआ । इस प्रयत्न में न केवल अकलंक के विद्याशिष्य-प्रशिष्य विद्यानन्द, माणिक्यनन्दी, अनन्तवीर्य, प्रभाचन्द्र, वादिराज आदि दिगम्बर आचार्य ही झुके; किन्तु अभयदेव, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्राचार्य आदि अनेक श्वेताम्बर आचार्यों ने भी अकलंकीय तार्किक भूमिका को विस्तृत किया । इस तर्कप्रधान जैन युग ने जैन मानस में एक ऐसा परिवर्तन पैदा किया जो पूर्वकालीन रूढिबद्धता को देखते हुए आश्चर्यजनक कहा जा सकता है । संभवतः सिद्धसेन दिवाकर के बिलकुल नवीन सूचनों के कारण उनके विरुद्ध जो जैन परंपरा में पूर्वग्रह था वह दसवीं शताब्दी से स्पष्ट रूप में हटने और घटने लगा । हम देखते हैं कि सिद्धसेन की कृति रूप जिस न्यायावतार पर - जो कि सचमुच जैन परंपरा का एक छोटा किन्तु मौलिक मन्थ है - करीब तीन शताब्दी तक किसीने टीकादि नहीं रची थी, उस न्यायावतार की ओर जैन विद्वानों का ध्यान अब गया । सिद्धर्षि ने दसवीं शताब्दी में उस पर व्याख्या लिख कर उसकी प्रतिष्ठा बढ़ाई और ग्यारहवीं शताब्दी में वादिवैताल शान्तिसूरि ने उस को वह स्थान दिया जो भर्तृहरि ने 'व्याकरणमहाभाष्य' को, कुमारिल ने 'शाबरभाष्य' को, धर्मकीर्त्तिने 'प्रमाणसमुच्चय' को और विद्यानन्द ने 'तत्त्वार्थसूत्र' आदि को दिया था । शान्तिसूरि ने न्यायावतार की प्रथम कारिका पर सटीक पद्यबन्ध 'वार्त्तिक' रचा और साथ ही उस में उन्हों ने यत्र तत्र अकलंक के विचारों का खण्डन भी किया । इस शास्त्र - रचनाप्रचुर युग न्यायावतार ने दूसरे भी एक जैन तार्किक का ध्यान अपनी और खींचा। म्यारहवीं शताब्दी के जिनेश्वरसूरि ने न्यायावतार की प्रथम ही कारिका को ले कर उसपर एक पद्यबन्ध 'प्रमालक्षण' नाम का ग्रन्थ रचा और उस की व्याख्या भी स्वयं उन्हों ने की । यह प्रयत्न दिङ्नाग के 'प्रमाणसमुच्चय' की प्रथम कारिका के ऊपर धर्मकीर्त्ति के द्वारा रचे गए सटीक पद्यबन्ध 'प्रमाणवार्त्तिक' का; तथा पूज्यपाद की 'सर्वार्थसिद्धि' के प्रथम मंगल श्लोक के ऊपर विद्यानन्द के द्वारा रची गई सटीक 'आप्तपरीक्षा' का अनुकरण हैं । अब तक में तर्क और दर्शन के अभ्यास ने जैन विचारकों के मानस पर अमुक अंश में स्वतंत्र विचार प्रकट करने के बीज ठीक ठीक बो दिये थे । यही कारण हैं कि एक ही न्यायावतार पर लिखने वाले उक्त तीनों विद्वानों की विचारप्रणाली अनेक जगह भिन्न भिन्न देखी जाती है । 6 १ जैनतर्कवार्तिक, पृ० १३२; तथा देखो न्यायकुमुदचन्द्र - प्रथमभाग, प्रस्तावना पृ० ८२ । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002518
Book TitleGyanbindu Prakarana
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1942
Total Pages244
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size13 MB
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