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________________ ज्ञानबिन्दुपरिचय-१. ग्रन्थ का नाम निःसन्देह यहाँ श्रुत शब्द से ग्रन्थकार का अभिप्राय पूर्वाचार्यों की कृतियों से है । यह भी स्पष्ट है कि ग्रन्थकार ने अपने ग्रन्थ में, पूर्वश्रुत में साक्षात् नहीं चर्ची गई ऐसी कितनी ही बातें निहित क्यों न की हों, फिर भी वे अपने आप को पूर्वाचार्यों के समक्ष लघु ही सूचित करते हैं। इस तरह प्रस्तुत ग्रन्थ प्राचीन श्रुतसमुद्र का एक अंश मात्र होने से उस की अपेक्षा तो अति अल्प है ही, पर साथ ही ज्ञानबिन्दु नाम रखने में ग्रन्थकार का और भी एक अभिप्राय जान पड़ता है। वह अभिप्राय यह है, कि वे इस ग्रन्थ की रचना के पहले एक ज्ञानविषयक अत्यन्त विस्तृत चर्चा करने वाला बहुत बड़ा ग्रन्थ बना चुके थे जिस का यह ज्ञानबिन्दु एक अंश है । यद्यपि वह बड़ा ग्रन्थ, आज हमें उपलब्ध नहीं है, तथापि ग्रन्थकार ने खुद ही प्रस्तुत ग्रन्थ में उस का उल्लेख किया है, और यह उल्लेख भी मामूली नाम से नहीं किन्तु 'ज्ञानार्णव' जैसे विशिष्ट नाम से । उन्हों ने अमुक चर्चा करते समय, विशेष विस्तार के साथ जानने के लिए स्वरचित 'ज्ञानार्णव' ग्रन्थ की ओर संकेत किया है । 'ज्ञानबिन्दु' में की गई कोई भी चर्चा स्वयं ही विशिष्ट और पूर्ण है । फिर भी उस में अधिक गहराई चाहने वालों के वास्ते जब उपाध्यायजी 'ज्ञानार्णव' जैसी अपनी बड़ी कृति का सूचन करते हैं, तब इस में कोई सन्देह ही नहीं है कि वे अपनी प्रस्तुत कृति को अपनी दूसरी उसी विषय की बहुत बड़ी कृति से भी छोटी सूचित करते हैं। सभी देश के विद्वानों की यह परिपाटी रही है, और आज भी है, कि वे किसी विषय पर जब बहुत बड़ा प्रन्थ लिखें तब उसी विषय पर अधिकारी विशेष की दृष्टि से मध्यम परिमाण का या लघु परिमाण का अथवा दोनों परिमाण का ग्रन्थ भी रचें। हम भारतवर्ष के साहित्यिक इतिहास को देखें तो प्रत्येक विषय के साहित्य में उस परिपाटी के नमूने देखेंगे। उपाध्यायजी ने खुद भी अनेक विषयों पर लिखते समय उस परिपाटी का अनुसरण किया है। उन्हों ने नय, सप्तभंगी आदि अनेक विषयों पर छोटे छोटे प्रकरण भी लिखे हैं, और उन्हीं विषयों पर बड़े बड़े ग्रन्थ भी लिखे हैं । उदाहरणार्थ 'नयप्रदीप', 'नयरहस्य' आदि जब छोटे छोटे प्रकरण हैं, तब 'अनेकान्तव्यवस्था', 'नयामृततरंगिणी' आदि बड़े या आकर ग्रन्थ भी हैं। जान पड़ता है ज्ञान विषय पर लिखते समय भी उन्हों ने पहले 'ज्ञानार्णव' नाम का आकर ग्रन्थ लिखा और पीछे ज्ञानबिन्दु नाम का एक छोटा पर प्रवेशक ग्रन्थ रचा । 'ज्ञानार्णव' उपलब्ध न होने से उस में क्या क्या, कितनी कितनी और किस किस प्रकार की चर्चाएँ की गई होंगी यह कहना संभव नहीं, फिर भी उपाध्यायजी के व्यक्तित्वसूचक साहित्यराशि को देखने से इतना तो निःसन्देह कहा जा सकता है कि उन्हों ने उस अर्णवग्रन्थ में ज्ञान संबंधी यच्च यावच्च कह डाला होगा । आर्यलोगों की परंपरा में, जीवन को संस्कृत बनानेवाले जो संस्कार माने गए हैं उन में एक नामकरण संस्कार भी है। यद्यपि यह संस्कार सामान्य रूपसे मानवव्यक्तिस्पर्शी ही है, तथापि उस संस्कार की महत्ता और अन्वर्थता का विचार आर्यपरंपरा में बहुत १"अधिक मत्कृतज्ञानार्णवात् अवसेयम्"-पृ० १६ । तथा, ग्रन्थकार ने शास्त्रवार्तासमुच्चय की टीका स्याद्वादकल्पलता में भी वकृत ज्ञानार्णव का उल्लेख किया है-“तत्त्वमत्रयं मत्कृतज्ञानार्णवादवसेयम्"-पृ. २० । दिगम्बराचार्य शुभचन्द्र का भी एक ज्ञानार्णव नामक ग्रन्थ मिलता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002518
Book TitleGyanbindu Prakarana
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1942
Total Pages244
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size13 MB
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