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ग्रास्ताविक वक्तव्य |
ॐ
स्तुत ग्रन्थमाला में प्रकाशित विविधतीर्थकल्प नामक ग्रन्थको प्रस्तावनाकी अन्तिम कण्डिकामें हमने लिखा प्रखत था कि - " विस्तृत जैन इतिहासकी रचनाके लिये, जिन ग्रन्थोंमेंसे विशिष्ट सामग्री प्राप्त हो सकती है उनमें - (१) प्रभावकचरित्र, (२) प्रबन्धचिन्तामणि, (३) प्रबन्धकोष, और (४) विविधतीर्थकल्प - ये ४ ग्रन्थ मुख्य हैं। ये चारों ग्रन्थ परस्पर बहुत कुछ समान विषयक हैं और एक दूसरेकी पूर्ति करनेवाले हैं । जैन धर्मके ऐतिहासिक प्रभावको प्रकट करनेवाली, प्राचीन कालीन प्रायः सभी प्रसिद्ध प्रसिद्ध व्यक्तियों का थोडा बहुत परिचय इन ४ चारों ग्रन्थोंके संकलित अवलोकन और अनुसन्धान द्वारा हो सकता है । इसलिये हमने इन चारों ग्रन्थोंको, एक साथ, एक ही रूपमें, एक ही आकारमें, और एक ही पद्धतिसे संपादित और विवेचित कर, इस ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित करनेका आयोजन किया है । इनमेंसे, प्रबन्धचिन्तामणिका मूल ग्रन्थात्मक पहला भाग, गत वर्ष (संवत् १९८९) में प्रकट हो चुका है और उसका संपूरक पुरातनप्रबन्धसंग्रह नामका दूसरा भाग, इस ग्रन्थ के ( विविधतीर्थकल्पके) साथ ही प्रकट हो रहा | प्रबन्धकोषका मूल ग्रन्थात्मक पहला भाग भी इसका सहगामी है । प्रभावकचरित्र अभी प्रेस में है, सो भी थोडे ही समयमें, अपने इन समवयस्कोंके साथ, विद्वानों के करकमलों में इतस्ततः सञ्चरमाण दिखाई देगा ।"
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इस संकल्पित आयोजनानुसार, आज यह प्रभावकचरित्र विद्वानोंके सम्मुख उपस्थित किया जा रहा है । उपरि निर्दिष्ट इन चारों ग्रन्थोंमें, रचनाक्रम और वस्तुविस्तारकी दृष्टि से प्रभावकचरित्रका स्थान पहला होने पर भी, इसका प्रकाशन जो सबसे पीछे हो रहा है, और सो भी अपेक्षाकृत कुछ अधिक विलंबके साथ, इसमें कारण केवल ग्रन्थमालाके अन्यान्य प्रकाशनोंकी कार्यसंकीर्णता ही है । एक साथ छोटे बडे कई ग्रन्थ छपते रहनेके कारण इसके प्रकाशनमें कुछ विशेष विलम्ब हो गया है ।
पर इसके साथ ही, इसी विषयकी सामग्री के साधनभूत, कुमारपालचरितसंग्रह, जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह, खरतरगच्छगुर्वावली आदि कई महत्त्वके और और ग्रन्थ भी तैयार हो कर, प्रसिद्धि प्राप्त कर रहे हैं, और कई अन्य छप भी रहे हैं । प्रबन्धचिन्तामणिका हिन्दी अनुवाद भी इसके साथ ही प्रसिद्ध हो रहा है । विद्वदल मुनिवर श्रीपुण्यविजयजीकी पुण्यकृपासे, महामात्य वस्तुपाल- तेजपाल के पुण्यकीर्तनों का प्रकाश करनेवाला धर्माभ्युदय नामक महाकाव्य, जो खुद उन महापुरुषोंके धर्मगुरुका बनाया हुआ है और जिसके साथ अन्यान्य कई अपूर्व ऐतिहासिक प्रशस्तियां आदि संलग्न की गईं हैं, इन ग्रन्थों के साथ-ही-साथ विद्वानोंके करकमलोंमें सुशोभित होने को तैयार हो रहा है ।
प्रस्तुत ग्रन्थका प्रथम मुद्रण, बम्बईके सुप्रसिद्ध निर्णयसागर प्रेसने, सन् १९०९ में किया था, जिसका संपादन हमारे मान्य मित्र और वर्तमानमें बडोदाके राजकीय पुरातत्त्व विभागके मुख्य नियामक, ज्ञानरत्न डॉ० हीरानन्द शास्त्री, एम्. ए. एम्. एल्. ओ. डी. लिट्. ( रिटायर्ड गवन्मेंट एपिग्राफिस्ट ) ने किया था । एक तो शास्त्री महाशयका प्रथम संपादन कार्य था और दूसरा यह कि उनको जो हस्तलिखित प्रतियां संशोधनार्थ उपलब्ध हुईं थीं वे प्रायः अशुद्धिबहुल थीं; इसलिये उस आवृत्तिमें अशुद्धियोंकी खूब भरमार रह गई । तो भी शास्त्री महाशयके उस प्रकाशनसे यह प्रभावकचरित्र यथेष्ट प्रसिद्धि में आ गया और सर्वसाधारण अभ्यासियोंके लिये बडा उपयोगी सिद्ध हुआ । सन् १९३०-३१ में, शास्त्रीजी इसकी पुनरावृत्ति निकालनेका उद्योग करने लगे;
वह शायद प्रथम