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________________ उपदेश पुष्पमाला/51 होकर सुदीर्घ कालावधि में विष्णुकुमार मुनि के सदृश बहुत से मुनि धर्म-तीर्थ की प्रभावना करने वाले हुये हैं। होंति महाकप्पसुरा, बोहिं लहिउं तवेण विहुयरया। जह खंदओ महप्पा, सीसो सिरिवीरनाहस्स।। 84।। भवान्ति महाकल्प-सुराः, बोधिं लब्ध्वा तपसा विधूतरजाः। यथा स्कन्दक महात्मा-शिष्यः श्रीवीरनाथस्य।। 8411 तप के द्वारा अनेक व्यक्ति कर्मों की निर्जरा कर लघु कर्मी (अल्पकर्मी) हो महर्द्धिक देवलोक में देव हुये हैं जैसे- स्कंदकमुनि जो भगवान महावीर के शिष्य थे। केत्तियमित्तं भणिमो ? तवस्स सुहभावणाए चिण्णस्स। भुवणतए वि न जओ, अन्नं तस्सऽत्थि गुरुययरं ।। 85 ।। कियन्मात्रं भणाम: ? तपसः शुभभावनया चीर्णस्य। भुवनत्रयेऽपि न यतः अन्यत् तस्यास्ति गुरूकतरं ।। 85।। शुभ भावों के साथ सम्यक् प्रकार से किये गये तप की महिमा कहाँ तक कही जाये ? क्योंकि तप के द्वारा तीनों लोकों पर विजय प्राप्त की जा सकती है। इससे श्रेष्ठ अन्य कुछ भी नहीं है। इति पुष्पमाला विवरणे (तृतीयः) तपोधर्मः समर्थितः । (4) भावनाऽधिकार: 1. सम्यक् शुद्धि द्वारं। दाणं सीलं च तवो, उच्छुपुप्फ व निष्फलं होज्जा। जइ न हिययम्मि भावो, होइ सुहो तस्सिमे हेऊ।। 86 ।। दानं शीलं च तपः, इक्षुपुष्पमिव निष्फलं भवेत् । यदि न हृदये भावः भवति शुभः तस्मिन् ऐते हेतवः।। 86 ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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